दोहे (2)
583• दोहे
धरा प्रदुषित हुइ पड़ी,वृक्ष, तड़ाग सब नष्ट ।
हे नर!अबहूं चेति रहो,जीवन का करो प्रबंध।
बैठि-बैठि बीमार भयो, जीवन भयो निराश ।
श्रम-संघर्ष प्रकृति है, अबहूं करो उपाय ।
चंद्र, मंगल ढूंढि रहो, निज धरती बिलगाइ ।
जो धरा सुधारो आपनो, मानुष लेहू बचाइ ।
दर्प खड़ा नित द्वार पर, पहुंचे भीतर द्वार ।
विनम्रता प्रहरी खड़ा, आए न भीतर द्वार ।
साथी तो साथी हुआ, निशिदिन साथ निभाय ।
पति-पत्नी या मित्र हो, विश्वास-प्रेम बढि जाय ।
पति-पत्नी तो सखा भयो,आजीवन साथ निभाय।
प्रेम-विरह में सम रहे, धीरज कबहूं न खोय ।
मित्र निकट हो, दूर हो, भले बसे परदेश।
सुख-दुख में बातें करें, मन में होय संतोष ।
मित्र निभाए मित्रता , पति-पत्नी युग साथ ।
मातु-पिता-सुत-प्रेम की,जग में नाहिं मिसाल।
धनि-गरीब, ज्ञानी-गँवार, जाति-धरम बे-अर्थ ।
मित्र,मित्र है,मित्र सिर्फ, बिन बाधा, बिन शर्त।
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—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता,मौलिक/स्वरचित,08/08/2021•