दोहे
कपटी मानव की प्रकृति , होती सदा विचित्र।
झूठ,कपट, छल, द्रोह ही , इसका चाल चरित्र ।।
इनके ही हक में लिखो , पूछो नहीं सवाल ।
लोकतंत्र मृतप्राय है , होगा बड़ा बवाल ।।
झोपड़ियों में मुफलिसी , महल दिखें खुशहाल ।
कैसी अजब बिडम्बना , उठते नहीं सवाल ।।
मौसम में अब है कहाँ , पहले जैसी बात ।
सत्ता से अनुबंध कर , करता रहता घात ।।
अर्थी घर से पिता की , उठ न सकी उस रोज ।
बँटवारे की बात पर , पनपा कुत्सित ओज ।।
सतीश पाण्डे