दोहे । चोटी कटवा भूत ।
दोहे
शब्द शब्द की नाप से, भावों पर अनुबंध ।
दिन दिन यों बढ़ता गया, महक रही न गन्ध ।
शब्द कुसुम को गूंथता शब्दो पर नव छन्द ।
भाव ठिठुरने यो लगे ,ज्यो कँकरीली कन्द ।
कुंठित भाव प्रवाह गति, तनिक हो रही मन्द ।
‘राम’ विकारी , काम का , छंद नही वह छंद ।
राजनीति के पाठ मे जाति जाति मे पात ।
पढ़े पहाड़ा पांच का पचपन पे रुकि जात ।
चोटीकटवा भूत से , नारि हुई सब मौन ।
हेल्मेट पहने जागती, सोते पुरुष अलोन ।
चोटी की अदभुत कथा, अफ़वाहों की बात ।
चोटी कटवा भूत कम,, शंका अधिक सुझात ।
राम, सभी समझाइये, घर निज पास पड़ोस ।
अफ़वाहों को त्याग दें, बिना किये अफ़सोस ।
रक्षाबंधन प्रेम का,,,,,,,,जीवन मे उपहार ।
भाई बहनों के लिये, खुशियों का त्योहार ।
राम केश मिश्र