दोहे:- निर्वानाष्टकं
1⃣
मन मेधा मद मैं नही, नाहि चित्त विधान।
जीभ नासिका नयन नही, न स्रोता न कान।।
न नभ न बसुधा अगन, न वायु जल जान।
मैं ही अनादि चेतना, मुझको ही शिव मान।।
2⃣
न पंचवायु न कोश में, न सप्तधातु न प्राण।
वाणी में भी वास नहीं, न हाथ-पाँव सम जान।।
उत्सर्जन इन्द्रिय गुदा, में न बास सुजान।
मैं ही अनादि चेतना, मुझको ही शिव मान।।
3⃣
मैं न घृणा में बसूँ, नाहि प्रेम सुजान।
लोभ मोह मुझमें नही, न ईर्ष्या अभिमान।।
अर्थ धर्म न कामरुचि, न ही मोक्ष निदान।
मैं ही अनादि चेतना, मुझको ही शिव मान।।
4⃣
पुण्य-पाप में भी नहीं,न सुख-दुःख का भान।
न तीरथ न मंत्र में, न यज्ञ ज्ञान विज्ञान।।
न भोज्य, भोग न भोक्ता, नहि जल भोजन पान।
मैं ही अनादि चेतना, मुझको ही शिव मान।।
5⃣
न मृत्यु से डर मुझे, नही जाति का भेद।
न मेरे माता-पिता, हुआ न जन्म अभेद।।
नाहि सहोदर न सखा, न गुरु शिष्य समान।
मैं ही अनादि चेतना, मुझको ही शिव मान।।
6⃣
मैं सन्देहों से परे, नहि मेरा आकार।
कण कण में व्यापित सदा, कण कण ही आधार।।
समता में स्थित रहूँ, मुक्ति न बंधन जान।
मैं ही अनादि चेतना, मुझको ही शिव मान।।
आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा संस्कृत भाषा में रचित निर्वाणाष्टकम् के श्लोकों का हिंदी भाषा में दोहों के माध्यम से सरल रूपांतरण ?
✍रचनाकार/ अनुवादक
अरविंद राजपूत ‘कल्प’
(शिक्षक) साईंखेड़ा
7000906464