दोहा
बिलख-बिलख रोता सदा, मैं बालक नादान।
दर्शन क्यों देता नहीं, ऐ निष्ठुर भगवान।।
बिलख बिलख मत रो सदा, होकर सूर्य अधीर।
फिक्र जिसे तेरी नहीं, क्या समझेगा पीर।।
बिलख बिलख रोते रहे, प्रेमी, पागल, मूढ़।
राज जिंदगी का कभी, समझ न पाए गूढ़।।
पागल होकर प्रेम में, बन जाते हैं मूढ़।
जिसके सर पर हो गयी, इश्क सनक आरूढ़।
मरहम का बस नाम है, लगा रहे हैं ठूक।
देख रही चुपचाप सब, जनता होकर मूक।।
महँगाई की मार पर, जनता है लाचार।
बेसक कुछ कम हो गया, फिर भी सौ के पार।।
डीजल और पेट्रोल का, दाम घटा कुछ यार।
प्यास मिटे कब थूक से, कोशिश है बेकार।।
सम्मोहित करने लगे, माया और महेश।
गजल सुनाकर छा गए, भइया जी कमलेश।।
कसरत करते याद अब, सुबह-शाम दिन-रात।
व्याकुल मन कब आपसे, कुछ हो जाती बात।।
हे प्रभु तेरा सिवा, कौन सहारा आज।
भक्त भरोसा कर रहा, रख लेना तुम लाज।।
कारण, कारक, कर्म है, सब कुछ तेरे हाथ।
विपदा भारी आ पड़ी, कृपा करो हे! नाथ।।
बंद पड़ी हैं खिड़कियाँ, आए कैसे धूप।
ज्ञान बिना होता सदा, जीवन अंधा कूप।।
नैन निहारे एकटक, सुबह-शाम दिन-रात।
और हृदय करने लगा, खुद से खुद पर घात।।
पलक बिछाए राह में, खड़ी रहूँ दिन रैन।
सुन लो प्रियतम सांवरे, चुरा लिए हो चैन।।
प्रेम सुलगती हीं रहे, हृदय उदधि के बीच।
और पवन सम हो गया, पापी नैना नीच।।
खुली हुई हैं खिड़कियां, खुले हुए हैं द्वार।
हृदय सेज पर आ बसो, ऐ मेरे सरकार।।
दवा तुम्हारे मर्ज की, बन जाऊंगा यार।
प्रेम रोग का बैद्य हूँ, अवसर दो सरकार।।
देवालय में व्यर्थ ही, पटक रहे हो माथ।
कोशिश कर के देख लो, भाग्य कर्म के हाथ।।
हिम्मत मत हारो कभी, करो सदा सद्कर्म।
जीवन इक संघर्ष है, लड़ना मानव धर्म।।
जीवन में मुझको मिला, खुशियों का संसार।
दुनिया है मेरी यही, छोटा सा परिवार।।
अंधे के हाथो लगी, जबसे एक बटेर।
ताव मोछ पर दे रहा, समझे खुद को शेर।।
सत्य पराजित हो रहा, मिथ्या की जयकार।
करना हक की बात अब, सूर्य यहाँ बेकार।।
हाय हाय किस बात की, क्या जाएगा साथ।
सुख दुख देते राम प्रभु, कर्म तुम्हारे हाथ।।
जीवन पथ होता नहीं, सुखमय सूर्य सदैव।
ज्यों मौसम परिवर्तनिय, सुख-दुख यार तथैव।।
इज्ज़त की रोटी मिले, बेशक आधी पेट।
खा लो उसको प्रेम से, समझ खुदा की भेट।।
रोटी, कपड़ा, साथ जब, औषधि मिले निशुल्क।
रोजगार सबको मिले, तब समृद्ध हो मुल्क।।
जनहित में करते नहीं, नेता कोई कर्म।
स्वार्थ सिद्धि बनने लगा, राजनीति का धर्म।।
थूक चाटने से कभी, मिटा नहीं है प्यास।
जीना है यदि साथियों, करना स्वयं प्रयास।।
जनता को भरमा रहे, करते खूब प्रयास।
आज धरातल पर कहीं, दिखता नहीं विकास।
सत्य राह पर जो चले, करता है भव पार।
कपटी को मिलती सदा, अंत समय में हार।।
महँगाई उत्कर्ष पर, काम नहीं है पास।
कहने वाले कह रहे, सुंदर हुआ विकास।।
सोच बदलनी चाहिए, होगा खुद बदलाव।
नमक नहीं मरहम मिले, जिसे लगी हो घाव।।
जाति धर्म सब भूल कर, करना तनिक विचार।
क्यों हर बार गरीब की, किस्तम जाती हार।।
सिस्टम में छेदा हवे, पेपर होता लीक।
भ्रष्टाचारी तंत्र बा, केहू नइखे नीक।।
पर्चा आउट हो रहा, सिस्टम में है दाग।
खत्म नहीं होगा कभी, भ्रष्टाचारी आग।।
कैसी यह निष्पक्षता, समझ न आता आज।
पैसों पर बिकने लगा, सारा सभ्य समाज।।
पढ़ने लिखने से नहीं, चलने वाला काम।
दुनिया में बिकने लगा, पैसों पे एग्जाम।।
माल खजाना देख ज्यों, गदगद हुआ डकैत।
फूले नहीं समा रहा, वैसे आज टिकैत।।
सुबह शाम करता रहा, जिसको हरपल याद।
साजिश वो करता मुझे, करने को बर्बाद।।
जिनका खातिर रात दिन, सूर्य गिरवलन नीर।
ऊ बनि गइली आन के, देखिं पंचे हीर।।
दिल टूटल बा प्यार में, घाव भइल गम्भीर।
शून्य भइल संवेदना, जिंदा हवे शरीर।।
दिल जेकर टूटल हवे, समझी सेही पीर।
कोशिश कइनी लाख हम, धइल न जाला धीर।।
जे खाई गायी उहे, हरपल करी बखान।
कपटी,लोभी, स्वारथी, मानव के पहिचान।।
सन्तोष कुमार विश्वकर्मा सूर्य