दोहा
दोहा…
गिरा जा रहा आदमी, कटुता, हिंसा गर्त।
ऊपर चढ़ती जा रही, मद, मत्सर की पर्त।। 1
विस्मृत होता जा रहा, जब जीवन का सार।
व्यक्त भला कैसे करे, कर्ता का आभार।। 2
भय, संशय में बीतता, आज दिवस हर रात।
कर सकता कोई नहीं, सबसे खुलकर बात।। 3
बेचैनी से बढ़ रहा, जठर, मानसिक रोग।
दुर्लभ होता जा रहा, काया सरस निरोग।। 4
पहले से निर्धन नहीं, रहे आज के लोग।
सोचो फिर क्यों बढ़ रहा, घर-घर घातक रोग।। 5
गति विकास की तेज है, बहुत हुआ बदलाव।
इसके कारण ही हुआ, सचमुच दूर अभाव।। 6
नहीं नियन्त्रण चाहते, करना लोग खटास।
फिर आखिर कैसे बढ़े, मन में भला मिठास।। 7
लोग दिखाना चाहते, रोज पड़ोसी दाग।
इससे लगता जा रहा, सम्बन्धों में आग।। 8
ठीक नहीं है विवशता, दृश्य सत्य पर मौन।
उलट-पुलट जो हो रहा, उसका दोषी कौन।। 9
मानव मानव से बड़ा, यह संकीर्ण विचार।
हुआ जा रहा देश में, इसका अति संचार।। 10
डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)