दोहा
हरि दर्शन से क्षीण हो, कलुषित बुध्दि पाप।
देखन को पूजा करे, मन ना हो निष्पाप।।
बिन भरोस नहिं प्रेम हो, जन्म लिए बहुताय।
प्रेम बिना हरि ना मिले, कर लो कोटि उपाय।।
हृदय रमाए हरि रहो, जग से कैसा मोह।
कुछ दिन की यायावरी फिर सम्पूर्ण विछोह।।
जग साधो तो न सधे, ना साधो सध जाय।
ज्यों मुरलीधर की कृपा, राधे जप से आय।।
रघुवंश कुँवर रघुनाथ जी, रघुकुल के कुलदीप
जड़ जङ्गम परित्राण हैं, सर्व प्राणि के ईश।।
जल में घुल कर शर्करा, खुद को करती लीन।
प्रेम समर्पण जो करे, सदा नहीं वो हीन।।