दोहा
( दोहा )
ऐसी अजब गजब ये रीत ,इस में मानव की न कोई प्रीत,|
काम दाम सब रीति में बाटे ,मानव धर्म को कुटिलता चाटे,||
न कोई मानव धर्म माने,जात पात पर काटे छाँटे,|
निर्मल पर ही चढ़ते जाते,बात बात पर मारे चाँटे,||
जब कोई इस बात उठाता ,वही उसी समय मारा जाता,|
ये दुःख देत और अब दीना, इनका कोई ना पानी पीना,||
ऐसी अजब ये बात सुनाऊ,मानव जाति विथा सुनाऊ,|
हर कोई यहाँ पर मारा, न कोई ऊँची आवाज़ उठाता,||
जहाँ में एक परिवार आया,मध्य प्रदेश राज्य ये पाया,|
जहाँ मऊ जिला , बहाँ गाँव सतारा,||
एक महा मानव ने जन्म पाया,प्रकृति शांत परिवार मुशकाया,|
चऊँदा वा रत्न ,रूप महा माया,||
पिता हैं जिनके रामजी राव ,माँ हैं इनकी भीमा बाई,|
हुआ जन्म जब इनका आई, मात पिता इनके हरसाई,||
14/04/1891 ,जन्म इनके अब सभी के ध्यान में,|
हुये जब ये बालक अवस्था,पिता ने इनके दिया हैं बस्ता ,||
ज्ञान पा कर दिशा हैं दीना,इस दलदल में समाज का जीना,|
ऐसे इनको बहार निकालू,इनका जीवन कठिन शभालूँ,||
ये हैं सोय में ही जगाऊँ,सारे कार्य मैं ही बनाऊँ,|
जीवन का अधिकार दिलाऊँ,इनका जीवन खुशहाल बनाऊँ,||
कठिन परिश्रम इनने कीन्हा,जीवन अपना योग्य जीना,|
देश विदेश में की पढाई, शिक्षा पा कर देश में आई,||
आकर इनने बिचार बनाया,देश में घिरणा अधिक हैं छाया,|
जाति वाद हैं बहुत हैं छाया, मानवता का मजाक उडा़या,||
सभी नेता देश घूम आये,नहीं ऐसा कोई ज्ञानी पाये,|
मिलकर इनके पास आये,सभी एक साथ गिढ़गिढा़ये,||
देश संचालन कैसे कीन्हा, इतनी दिशा तुम हमको दीन्हा,|
आशा और दिलशा दीजै, सारे काम अब तुम ही कीजै,||
इतनी सुनकर वो हरसाऐ,मन में अपने बिचार बनाऐं,|
समाज में अब यह हैं जीना ,समाज खातिर अब कुछ हैं कीन्हा,||
शर्ते बाबा ने अब ये सुनाई,इनको मानो तब हम आई,|
देश व्यवस्था मैं अब करहूँ,अपने लोगों को ह्रदय धरहूँ,||||
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लेखक —Jayvind singh nagariya ji