दोहा
दोहा
हरिया किससे मैं कहूँ, अपने मन की पीर।
उठ आती है हूँक सी, सीना देती चीर।।
आज दुःखी हो कह रहा,अपने मन की पीर।
हरिया मुझसे छीन ले, पावक नीर समीर।।
आकर बैठो पास तुम, होकर कभी अशेष।
मैं नैना पढ़कर कहूँ, नही प्रश्न अब शेष।।
©दुष्यन्त ‘बाबा’