दोहा सप्तक. . . . जिन्दगी
दोहा सप्तक. . . . जिन्दगी
किसे कहें बलवान हम ,किसे कहें कमजोर ।
चींटी हाथी मार दे, बिना मचाए शोर ।।
पानी का है बुलबुला, बन्दे तेरी जान ।
दो मुट्ठी की राख बस , तेरी है पहचान ।।
धू – धू कर आखिर जला, यह दम्भी इंसान ।
माटी – माटी हो गई, माटी की पहचान ।।
चले अकड़ कर जिन्दगी, जब तक उसमें जान ।
रुकी साँस उसकी मिली, मरघट में पहचान ।।
श्वांस वाहिनी से मिला , अंतस को संकेत ।
अब उड़ने का वक्त है, उड़ जा बन कर रेत ।।
निर्णय सब करने लगे, मौन देह पर लोग ।
कर्मों के अनुरूप ही, जीव भोगता भोग ।।
देह दास है श्वांस की, नहीं श्वांस विश्वास ।
श्वांस चले तब तक रहे , हर पल जीवन आस ।।
सुशील सरना / 14-5-24