दोहा पंचक. . . . यथार्थ
दोहा पंचक. . . . यथार्थ
मन मंथन करता रहा, पाया नहीं जवाब ।
दाता तूने सृष्टि की, कैसी लिखी किताब।।
आदि-अन्त की जगत पर, सुख-दुख करते रास ।
मिटने तक मिटती नहीं, भौतिक सुख की प्यास ।।
जीवन जल का बुलबुला, पल भर में मिट जाय ।
इससे बचने का नहीं, मिलता कभी उपाय ।।
साँसों के अस्तित्व का, सुलझा नहीं सवाल ।
दस्तक दे आता नहीं, क्रूर नियति का काल ।।
चाहे जितने भी करो, जीवन रूप प्रपंच ।
निश्चित तुमको छोड़ना, होगा जग का मंच ।
सुशील सरना / 10-12-24