दोहा पंचक. . . . . पिता
दोहा पंचक. . . . . पिता
फटी बनियान बाप के, श्रम की है पहचान ।
भूली उसके त्याग को, नव युग की सन्तान।।
धन अर्जन के वास्ते, क्या -क्या सहता बाप ।
सुखी न हो परिवार तो, जीवन लगता श्राप ।।
चले पुत्र तो आज भी, पकड़ पिता का हाथ ।
चढ़ी जवानी हो गया, पुत्र बाप का नाथ ।।
लाख चढ़ाऐ चित्र पर, सुत फूलों के हार ।
जा कर फिर ना लौटता, घर का पालनहार ।।
लाखों अम्बर कम पड़े, उस अम्बर के बाद ।
रहते थे महफूज सब, घर भी था आबाद ।।
सुशील सरना / 19-5-24