दोहा पंचक. . . . . दम्भ
दोहा पंचक. . . . . दम्भ
हर दम्भी के दम्भ का, सूरज होता अस्त ।
रावण जैसे सूरमा, होते देखे पस्त । ।
दम्भी को मिलता नहीं, जीवन में सम्मान ।
दम्भ कुचलता जिंदगी, की असली पहचान ।।
हर दम्भी को दम्भ की, लगे सुहानी नाद ।
इसके मद में चूर वो, बन जाता सैयाद ।।
दम्भ शूल व्यक्तित्व का, इसका नहीं निदान ।
आडम्बर के खोल में, जीता वो इंसान ।।
दम्भी करता स्वयं का, सदा स्वयं अभिषेक ।
मैं- मैं को जीता सदा, अपना हरे विवेक ।।
सुशील सरना / 2-6-24