दोहा ग़ज़ल
एक नई विधा में आज –
पत्थर बने शरीर में, आशाओं के पाँव ।
चलते चलते थक गये, शहरों में अब गाँव ।।
छूट गयी पीछे बहुत,अब महुआ की गन्ध ,
भूले भटके ही मिले ,अब पीपल की छाँव ।
रेहट कुएँ बैल सभी, हुए एक इतिहास ।
चकली जाँता ओखली, रखे न घर में ढाँव ।
गुल्ली कंचे कौड़ियाँ ,दफन हुए सब खेल ,
खेल रहे अब गाँव में, नये कपट के दाँव ।
शहर निगलते जा रहे , गाँवों के आह्लाद,
अतिथि बुलाने को नही ,कौवों के भी काँव ।