दोहा ग़ज़ल (गीतिका)
दोहा ग़ज़ल – शिल्प दोहे का लें और ग़ज़ल के माफ़िक़ पहले दोहे [मतले] के बाद के ऊला-सानी टाइप दोहे [शेर] कहे जाएँ। इसको पं० गोपाल दास नीरज जी पहले इसको दोहा ग़ज़ल कहते थे , पर बाद में कुछ साहित्यक अंतर्विरोधों से वह बाद में इसे दोहा गीतिका कहने लगे थे , किंतु आम श्रोताओं व पाठकों ने इसे दोहा ग़ज़ल ही कहना जारी रखा , बहरहाल कुछ भी हो , है तो यह एक विधा ही |
दोहा गीतिका (दोहा ग़ज़ल ) ( अपदांत )
देह मुहब्बत बन गई, झरे अभी बस प्यार |
प्रीतम के अनुराग से , गोरी का शृंगार |
इश्क मोम सा हो गया , विरह बना है आग ,
इंतजार गोरी करे , साजन का मनुहार |
इश्क जहाँ पर आग है, साजन भी जब दूर ,
झरने तब अनुराग के, लगते है दीवार ||
इश्क इवादत मानना , कोई नहीं गुनाह ,
जो करते वह मानते , जीवन में आधार ||
कौन अछूता इश्क से , करते हम हैं खोज ,
रहता कौने में छिपा , कहते लोग बुखार |
करना सबको चाहिए , इश्क जानिए नूर ,
इसकी हस्ती भी रहे , जब तक है संसार |
करें इश्क वह जानते , कैसा इसका मान ,
नहीं “सुभाषा” मानता , इसको कोई भार |
सुभाष सिंघई
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दोहा ग़ज़ल (या दोहा गीतिका )
समांत (या काफिया) – ऐरे ,
पदांत (या रदीफ़ )- चोर
मतला-
जो जो अब रक्षक दिखें, है मौसेरे चोर |
आज हमारे जानिए , कल है तेरे चोर |
ग़ज़ल के शेर –
कौन करे विश्वास अब , धोखे की जब धार ,
ऐरे गेरे सब बने , नत्थू खेरे चोर |
कौन यहाँ छोटा बड़ा , कौन करे कद नाप ,
मिलें एक ही घाट पर , कौन नबेरे चोर |
चापलूसता डंक से , सबको लेते काट ,
आ जाते डसने सदा , बड़े सबेरे चोर |
बचें कहाँ तक लोग भी , करते मीठी बात ,
नजर उठाकर देखिए , ऐरे गैरे चोर |
झूठें भी सब जानकर , होता नहीं बचाव,
जाल बिछाकर आपको , हरदम हेरे चोर |
मक़्ता
सदा सजगता अब रहे , विनती यहाँ ‘सुभाष’,
अनजानी जब राह हो , तुमको घेरे चोर |
सुभाष सिंघई
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दोहा गीतिका (दोहाग़ज़ल)
जहाँ आवरण दर्प का , वहाँ ज्ञान बेकार |
मोती है यदि सीप में , कीमत तब लाचार ||
पानी सा ज्ञानी रहे, निर्मल दिखे स्वभाव ,
मन गंगा चंगी दिखे , नहीं पाप का भार |
अपने अंदर खोजिए , कितने भरे उसूल ,
दूजे में कुछ झाँकना , बेमतलब की रार |
पाखंडी है सब धनी , सुख साधन भरपूर,
पुण्यवान निर्धन दिखें , देता जग है खार |
सुन ‘सुभाष’ यदि छिपकली, रहे राम तस्वीर ,
ज्यों का त्यों है आचरण, कोई नहीं सुधार |
कहते मधुरस शहद को ,मधुरस कहें शराव ,
लगे जहाँ मधुरस ग़ज़ल , है फूलों का हार |
सुभाष सिंघई
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दोहा गीतिका (दोहाग़ज़ल)
दया नहीं , पत्थर ह्रदय , उपज नहीं भू भाग ,
वचन जहाँ , कटुता भरे , खोजो नहीं पराग |
सुनो मित्रता नाग से , कीजे सोच विचार ,
जहर वमन उपहार में , मिले दंश का दाग |
कहीं लोमड़ी नाचती , हिरणी सा श्रृंगार ,
नगर वधू ज्यों मंच पर , गेय सती का राग |
बेवश दिखता देश है , लोकतंत्र लाचार,
कोयल भौंचक देखती , कुरसी बैठे काग |
मूरख हो यदि सामने , मत करना तकरार ,
बेमतलव की रार में , कीचड़ से हो फाग |
राजनीति के मंच पर , अजब गजब किरदार ,
नेता अपने देश में , फेंक रहे विष झाग |
==सुभाष सिंघई ===
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दोहा गीतिका (दोहा ग़ज़ल)
जख्मों के तन पर दिखें , जग के दिए निशान |
लोग देखकर कह उठें , सही नहीं इंसान ||
फल के सँग छाया मिले , खूब लगाए आम ,
पैने पत्थर मारकर , लूटें यहाँ सुजान |
जब-जब भी हालात को, हल का किया प्रयास ,
हाथ जलाकर आ गए , खोकर हम सम्मान |
यत्र तत्र बनते रहे , मतलब के सब यार ,
मिली मुसीबत जिस जगह,खड़ा रहा सुनसान |
सुन सुभाष संसार में , तरह-तरह के लोग ,
सबके अपने रोग है , अपने -अपने गान |
अकल सभी के पास है , समझाना बेकार ,
नहीं मुफ़्त में बाँटना , अपना जाकर ज्ञान |
लोग मुफ्त की चीज में , कमी निकाले खोज ,
कचरा बिकता रोड पर , जग देता है घ्यान |
==© सुभाष सिंघई===
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दोहा गीतिका ,
समांत – अने , पदांत – मतलब का संसार
कथन न मतलब का गुने, मतलब है लाचार |
निज मतलब की सब सुने, मतलब का संसार |
बिठलाते है मित्र को , करते मीठी बात ,
अपना हित पहले चुने , मतलब का संसार |
चार लोग मिलकर चले , अपना मतलब देख ,
घुने चने पहले भुने , मतलब का संसार |
धानी भी चलती रहे , मतलब का हो तेल ,
बीजों को रुइ-सा धुने , मतलब का संसार |
मतलब जब जाता निकल , नहीं रहे जब काम ,
कहे चना यह सब घुने , मतलब का संसार |
सुभाष सिंघई
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बुंदेली दोहा ग़ज़ल (गीतिका) अपदांत
दौलत ब्याड़े जान दो , नइँ हौ बसकी बात |
पाँव फँसा लूलै बनैं , करियौ नईं उलात |
ऊखौ ब्याड़े जान दौ , जौन न आबै काम ,
बनतइ मूसर चंद है , खाकै उल्टी घात |
उसकौ ब्याड़े जान दौ , भलै मिलत हौ दाम ,
हाथ लगातइ ही जितै , कौचाँ जितै पिरात |
भइया ब्याड़े जान दो , दौ मौका खौ टार ,
लबरन की संगत जितै, मिलतइ हौ सौगात |
ब्याड़े में संगत गई , रानै सबखौ दूर ,
किलकिल मचबै खेंच कें , उल्टी मौं की खात |
टाँय- टाँय-सी फिस्स हौ , उतै न जाऔ आप ,
ब्याड़े में हम तुम फिरै , बड़ै सयानै कात |
ब्याड़े में हम बिद गये , अच्छे बनै गवाह ,
दिन भर पेशी है करत ,पसरौ रत है भात ||
ब्याड़े में पंगत गई , कत सुभाष है आन ,
गुली तेल लडुवाँ जितै , चिपकत दौनों हात ||
सुभाष सिंघई
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दोहा ग़ज़ल
गुरु विमर्श की कर रहे , सभी भक्त जयकार |
नमन जिनागम पंथ को , रहे आज उच्चार ||
जग में सम्यक ज्ञान से , कभी न होते भेद ,
गुरु विमर्श कहते यहाँ ,सम्यक करो निहार |
जिनवाणी में कह रहे , कुंदकुंद आचार्य ,
जयदु जिणागम पंथ है , करने भव को पार |
पंथ मार्ग पथ राह मग , सभी एक से अर्थ ,
सभी जिनागम से जुड़े , करें अर्थ व्यवहार |
जिनवाणी का कर श्रवण , करिए सब कल्याण ,
गुरु विमर्श उपदेश सब , जीवन में हैं सार |
चले आइए गुरु चरण , छूकर लीजे ज्ञान ,
गुरु विमर्श जय-जय करो , लो जीवन को तार |
जयति जिनागम पंथ की , करता विनय ” सुभाष” ,
गुरु विमर्श की रज चरण , करती है उद्धार |
©®सुभाष सिंघई जतारा
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दोहा ग़ज़ल (या दोहा गीतिका )
समांत (या काफिया) – अगें
पदांत (या रदीफ़ )- हुजूर
म़तला
समझ न अब तक आ रहा , रूठे लगें हुजूर |
इंतजार हम कर रहे , कब तक जगें हुजूर |
दोहा ग़ज़ल के शेर
हम दीवानें है सदा , मानें उनकी बात ,
खुद ही सब यह चाहते , आकर ठगें हुजूर |
सूरज चंदा मानते , उनका रूप अनूप ,
अंधकार आकाश में , आकर उगें हुजूर |
फीका -फीका सब लगे , लगता यहाँ श्वेत ,
लेकर अनुपम तूलिका , सबको रँगें हुजूर |
मक़्ता
ईश्वर यहाँ हुजूर हैं , मालिक कहे ‘सुभाष’ ,
रक्षा हित मैदान में , आकर खँगें हुजूर |
सुभाष सिंघई
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इस प्रकार भी दोहा ग़ज़ल (अपदांत गीतिका) लिख सकते है
दोहा ग़ज़ल (या अपदांत दोहा गीतिका )
पदांत (या रदीफ़ )- ऊर
मतला
लगा हुआ दरबार है , बैठे हुए हुजूर |
चेहरे पर सब देखते , अद्भुत न्यारा नूर ||
दोहा ग़ज़ल के शेर
सब सेवा में है लगे , छूते आकर पैर ,
विनय सभी करते वहाँ , देखो हमें जरूर |
शरण सभी है चाहते , करते सभी प्रणाम ,
कहते हमको मत रखो , अब अपने से दूर |
याचक बनकर माँगते , जौड़े दोनों हाथ ,
कहते कर दो माफ सब , जो भी हुए कुसूर |
सदाचार से हम रहें , सच्ची होवें राह ,
कभी न मन में हो उपज , जिसमें रहे फितूर |
दामन मेरा भरा रहे , आशीषें दे आप ,
दुनिया के जंजाल में , कभी न हो मजबूर |
मक़्ता
मेरे आका राम है , कहता यहाँ ‘ सुभाष ‘ ,
प्याला उनके नाम का , जग में है मशहूर |
सुभाष सिंघई
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बुंदेली दोहा ग़ज़ल (दोहा गीतिका)
काफ़िया (या समांत स्वर ) -अइया
पदांत (या रदीफ़ ) रात {रात=रहना }
मिलत उयै वरदान है, जी घर गइया रात |
लगतइ जैसैं गेह में , देवी मइया रात ||
घर में रत तैतीस है , कोटि करौड़ौ देव ,
घर की गाड़ी ना रुकै , ढड़कत पइया रात |
दूद दही घर में रयै , भूक भगै सब दूर ,
गौधन पूजन कौ जितै , बनौ रबइया रात |
गाय मूत्र है एन टी , सैप्टिक जानौ आप ,
लिपौ जितै गौबर दिखै , रोग हरइया रात |
नहीं अन्न बरबाद हौ , धौन पियत है गाय ,
पीकै वह आषीष दै , घास चबइया रात |
बछबाँ ऊकै काम कै , बनै बैल दै काम ,
मुनसेलू भी खेत में , बनै हकइया रात |
भाग्य बड़ै सब मानियौ , गइया घर में हौय ,
कत ‘सुभाष’ सब लोग तब , नोट गिनइया रात |
सुभाष सिंघई
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बुंदेली दोहा ग़ज़ल ( दोहा गीतिका )
काफ़िया ( समांत ) – ओरे
रदीफ़( पदांत ) बोल
गोरी जब भी बोलती , लगते भोरे बोल |
शक्कर में डूबै लगै, ऊकै कोरे बोल |
खुश्बू दैत जुवान है , औठ कमल के फूल ,
लगै जुदइ़या से सदा , ऊकै गोरे बोल |
गोरी जब नाराज हो , चिंता करता गाँव ,
नैनों से वह बोलती , नीले धोरे बोल |
जितै टूटती बात है , करे शुरु वह आन ,
सबरै काम समारबै , अपने घोरे बोल |
रस्सी टूटे प्रेम की, आकैं लेत समार ,
कभउँ टूट ना देखते , ऊकै जोरे बोल |
चार जनन के बीच में , बैसे तो चुप रात ,
फिर धीरे से कात है , सुन लो मोरे बोल |
जब “सुभाष” को देखती , घूँघट से मुस्कात ,
ठाड़ी होती है लिगाँ , बोले न्योरे बोल |
सुभाष सिंघई जतारा
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दोहा ग़ज़ल(दोहा गीतिका)
काफ़िया (समांत ) स्वर – अन
रदीफ़ ( पदांत ) – मदहोश
रंग बिरंगा माह है , गोरी मन मदहोश |
लौटे प्रिय परदेश से , लगता तन मदहोश |
गोरी भावुक लग रही , सुलझाती है बाल ,
लगती अब शृंगार में , है बन ठन मदहोश |
नैना चंचल हो गए , ले काजल की कोर ,
मिलन महकता झूमकर ,है अपनापन मदहोश |
पग धरती पर नाचते , मिले पवन से ताल ,
प्रेम मगन गोरी दिखे , बने मिलन मदहोश |
धरती पीली लाल है , सुंदर खिलते फूल ,
गोरी तन्मय गा रही , है यौवन मदहोश |
छनछन पायल बज रही , थिरक रहे सब अंग ,
अगड़ाई भी आ गई , मन का धन मदहोश |
प्रीतम भी कुछ मन लिए , आया गोरी पास ,
तीन लोक की सम्पदा , प्रेम रतन मदहोश |
आज मिलन मस्ती चढ़ी , मन में बजें मृदंग ,
नेह पिया का देखकर , लगे चमन मदहोश |
रसिया मन भँवरा लगे , रहा पुष्प को चूम |
गोरी झूले चाँद पर , लगे गगन मदहोश ||
भँवरा भी मड़रा रहा , सुनता गान ” सुभाष “,
आज सेज के पास में , है उपवन मदहोश |
सुभाष सिंघई
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बुंदेली दोहा ग़ज़ल (गीतिका)
काफिया (समांत ) – उटकी
रदीफ़ (पदांत ) दूर
धान कूट गोरी सबइ, कर रइ टुटकी दूर |
नकुवाँ में ना भस घुसै , करबै घुटकी दूर |
हात चला रइ खूब है , भीगौ दिखै लिलार ,
सूपा से सब कर रयी , उतरी फुटकी दूर |
लल्ला बैठौ पास में , लिगाँ सरक जब आव ,
कर रइ ऊखौं प्रेम से , दैकैं चुटकी दूर |
भरत जात चाँउर सबइ , कचरा ना आ जाय ,
सरका रइ है हात से , गुटका गुटकी दूर |
मेनत देख “सुभाष” जब , गय गोरी के पास ,
घूँघट लामौ डार कै , हँस कैं सुटकी दूर |
सुभाष सिंघई
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हिंदी दोहा ग़ज़ल ( गीतिका)
काफ़िया (समांत स्वर )- अआयें
रदीफ़ (पदांत ) शब्द – देश
आओ मिलकै हम चलै , सही बनायें देश |
सबसे अच्छे विश्व में , सभी बतायें देश |
चिड़िया सोने की रहे, है भारत इतिहास ,
फिर से अच्छे काम हों , खुशी मनायें देश |
प्रजातंत्र मानों सुखद , रहता है सुख चैन ,
मानवता अधिकार में , अग्र लगायें देश |
धर्म हमारा आचरण , रखते कर्म प्रधान ,
न्याय नीति के गान में , सभी सुनायें देश |
विश्व पटल पर बात हो , रखना अपना पक्ष ,
भारत माँ की शान हित , सदा गवायें देश |
कोरोना के काल में , डोज विश्व में बाँट ,
चर्चित भारत था रहा , भेज दवायें देश |
चर्चा भारत की रहे , है ‘सुभाष’ अरमान ,
जहाँ कामना प्रेम हो , सदा सुझायें देश |
सुभाष सिंघई जतारा
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बुदेली दोहा गज़ल
गीतिका , आधार दोहा छंद
समांत – ई , पदांत आर
सांसी सांसी बोलकै , मिली पठौनी खार |
नरदा की विनती करी, बैठे बखरी हार ||
माते जू कौ निबूआ , कहें संतरा लोग ,
हमने खट्टो कह दयो , हो गई तुरतयीं रार ||
मुखिया जी का शौक है , दारू पीना रोज ,
ऊनै कै दइ टुन्न है , घली पिछारी मार |
भड़याई लरका करे , बाप बनो सरपंच , रामदुलारी चीन्ह के ,अब हो गयी बेकार ||
दारू मुरगा चींथ कै , कत ,सुभाष, बै बोल, मेरी सदा जुगाड़ से ,नैया आयी पार
सुभाष सिंघई
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दोहा ग़ज़ल (दोहा गीतिका )
काफ़िया (समांत) स्वर – आरों
रदीफ़ ( पदांत)- के रंग
आज हुए भदरंग हैं , त्यौहारों के रंग |
हर पल बदले देखते, अब यारों के रंग ||
फीके – फीके स्वाद में , जीते हैं मिष्ठान |
अब कच्चे ही सब बने , उपकारों के रंग ||
मेंढ़क सिर पर कूँदते , चूहें कुतरें कान |
डाक्टर बने सियार है , उपचारों के रंग ||
लाज शर्म वैश्या रखे , सती चले बेढंग |
बजे कपट अब ढोल से , गद्दारों के रंग ||
अब असत्य का शोर है , रखे सत्य मुख बंद |
वाह- वाह अब पा रहे , तलवारों के रंग ||
योगी से तप दूर है ,चंदा दिखे क्लांत |
बदल रहे आकाश में , अब तारों के रंग |
मिलते नीम हकीम हैं, कुछ तो तिकड़म बाज |
अब “सुभाष” भी देखता , हैं नारों के रंग ||
सुभाष सिंघई , जतारा ( टीकमगढ़ ) म० प्र०