दोपाया
सोचो ना दोपाए बहुपाया बनेंगे,
दीन मजलूमों के हमसाया बनेंगे।
जो खड़े न हो सके खुद पैर पर,
वो दूसरों का वक्त भी जाया करेंगे।।
पैर उनके पास है पर गति नहीं,
है वो शिक्षित मगर,है मति नहीं।
बोल सकते है मगर वो मौन है,
मान बैठें है कि उनकी क्षति नहीं।।
देख रहीं आखें पर वो दृष्टिहीन हैं,
दे सकते है न्याय, पर मन मलीन है।
सुन सकते पर है वो बन बहरे बैठे,
बस खुद के पोषण में वो तल्लीन हैं।।
सूंघ रही है नाक, चंदन और विष्ठा भी,
मन सोया है, सोई मानव मान प्रतिष्ठा भी।
पर खुद को ईश्वर कहलाने की इच्छा है,
बेसक उनमें शेष नहीं कोई जीवन निष्ठा भी।
उनकी हर इंद्रिय पर कब्जा है पैसे का,
कान नाक मन है पैसा, दृष्टि भी पैसे का।
कलयुग में दोपाया मानव हैं “संजय”,
स्वमनुविद् और अक्ल वही भैंसे जैसे का।।