दोगला चेहरा
जान जाते हैं मौसम का रुख
पहले ही, हैं ऐसे इंसान हम
जब जान पाएंगे दर्द सामने वाले का
कब बन पाएंगे ऐसे इंसान हम
जाते रहते हैं आज चांद पर लेकिन
कब पड़ौसी के घर गए, ये याद नहीं
है व्यस्तता इतनी अब हमारी
बच्चे कब बड़े हो गए, ये भी याद नहीं
चलाते हैं अभियान स्वच्छता के लेकिन
कभी मन का कचरा निकालने का वक्त नहीं
सबकुछ ऑटोमेटिक हो गया है अब लेकिन
अपने लिए तो अब भी हमारे पास वक्त नहीं
करते हैं बातें आध्यात्म की बड़ी बड़ी लेकिन
सच और विश्वास से अब हमारा कोई नाता नहीं
करते हैं बस अपेक्षाएं दूसरों से लेकिन
खुद का वास्तविकता से कोई नाता नहीं
गुलाम हो गए हैं तकनीक के हम इतने
जाने कब भस्मासुर बन जाए हमारे लिए
पहुंच जाएंगे नाभिकीय हथियार गलत हाथों में
बहुत मुश्किल हो जाएगा ज़माने के लिए
जाने बर्बाद करते हैं आशियाने
कितने जीवों के हम विकास के नाम पर
लेकिन बीत जाए खुद पर अगर
तो उसे प्रकृति का प्रकोप कहते हैं
बारूद बनाने वाले के नाम पर
हम शांति का सबसे बड़ा पुरस्कार देते हैं
है हमारा ये कैसा दोगलापन तुम भी बताओ
जब शांतिदूत को ही उससे वंचित करते हैं।