देह खड़ी है
गीत
कौन किसी का सोच रहा अब
अपनी-अपनी आज पड़ी है ।
छोड़ भवन तृष्णाएँ भागीं
दर्द घना ले देह खड़ी है ।।
द्वंद्व भरा चौसर जीवन में,
वंचक की अभिनव क्रीड़ा से ।
शुष्क अधर मुस्कान छुपी है,
घायल अभ्यंतर पीड़ा से ।।
निश्चय जीने की चाहत में,
श्वास-श्वास नित युद्ध लड़ी है ।
कौन किसी का सोच रहा अब
अपनी-अपनी आज पड़ी है ।।
जूझ रहा मानव अंतर् से,
नित्य चढ़ी साँकल तन -मन में
खण्डित चित्र दिखे दर्पण में
कितने दाँव लगे जीवन में।।
घिरा हुआ मन मोह जाल में
आई कैसी हीन घड़ी है ?
कौन किसी का सोच रहा अब
अपनी-अपनी आज पड़ी है ।।
भरा हुआ विश्वास जहर से,
छल-छद्मों का उर में डेरा ।
कौल सजी मीठी गंधों से,
करते बीते तेरा-मेरा ।।
भाव विलग थोथा मानस में,
उलझी जीवन नित्य कड़ी है ।
कौन किसी का सोच रहा अब
अपनी-अपनी आज पड़ी है ।।
डा. सुनीता सिंंह ‘सुधा’
23/4/2023
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