देह कम्पित यूँ हुई मधुमास से
गण रहित 20 मात्रिक छंद
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देह कम्पित यूँ हुई मधुमास से।
आया ज्यूँ भूकम्प कोई पास से।
आ ही जब मधुकर गया यूँ सामने।
तो छूटा पनघट पर कलश पाश से।
प्रीत का पानी जो था घट में भरा।
बून्द बून्द झरने लगा मन त्रास से।
धरा देह की यह थरथराने लगी ।
मिल गई जब श्वासें ‘मधु’की साँस से।
हया भी झरी फिर पनघटी नीर सी।
खिल गया हर रोम ज्यूँ हरी घांस से।
फिर गया भूकम्प बस हिला कर मनो।
मिट गया गुरुर सारा ज्यूँ विनाश से।
वक्त को गुजरना था गुज़र ही गया।
प्रीती ही तकती रही बस आस से।
सपना था यह या मन बना बावरा।
पर खिल गई थी आत्मा परिहास से।
(C) ** मधुसूदन गौतम