देश हो रहा शहरी
गाँव ढूंढते ठौर ठिकाना,
देश हो रहा शहरी.
नहीं चहक अब गौरैया की,
देती हमें सुनाई.
तोता-मैना, बुलबुल, कागा,
पड़ते नहीं दिखाई.
लुप्त हो रहे पीपल बरगद,
फुदके कहाँ गिलहरी.
ऐ सी लगे हुए कमरों में,
खिड़की में भी परदे.
बच्चे बूढ़े यहाँ आजकल,
रहने लगे अलहदे.
कॉलोनी के मेन गेट पर,
चौकस बैठे प्रहरी.
तार तार होते रिश्ते हैं,
लगे जिन्दगी सैटिंग.
फिर भी देर रात तक होती,
मोबाइल पर चैटिंग.
देख न पाता कोई भोर की,
सूरज किरण सुनहरी.
लिए उस्तरा पहुँचा वन तक,
अब मानव का पंजा.
किसे पता कब किस पहाड़ को,
कर डालेगा गंजा.
सिसकी भोर सांझ भी रोई,
चीखी खूब दुपहरी.