देश हमारा बदल रहा है /
देश हमारा बदल रहा है ।
राजपथों पर टहल रहा है ।
कंकड़, पत्थर बाली गलियाँ ।
बिना खिले ही सूखी कलियाँ ।
बगिया फिर भी अजर-अमर है ।
नवयुग का यह नया असर है ।
जितना बिगड़ा, पहले बिगड़ा ।
अब तो सबकुछ संभल रहा है ।
जंगल कटते , कट जाने दो ।
सैनिक मरते , मर जाने दो ।
नया ज़माना , नई क्रांति है ।
इसमें कुछ भी नहीं भ्रांति है ।
आज सरोवर गंदा, तो क्या ?
खिल तो उसमें कमल रहा है ।
घपले , रिश्वत , घोटाले हैं ।
लेकिन हम सुधार बाले हैं ।
तुमने किया गलत था सबकुछ ।
हमने किया सही है अब कुछ ।
“जिसकी लाठी, भैंस उसी की”।
यह विचार ही अटल रहा है ।
पैसा उसमें भले न आए ।
खाते तो सबके खुलवाए ।
भूखे – प्यासे सो जाओ तुम ।
नये घरों में खो जाओ तुम ।
आज देख का ऊँचा झंडा ।
गगन चूमने निकल रहा है ।
यौवन लुटता , लुट जाने दो ।
कुर्सी को तो बच जाने दो ।
जातिवाद है वर्ग – भेद है ।
स्वार्थ सिद्ध हो, नहीं खेद है ।
जी. एस. टी. के नये दौर में ।
नव – विकास ही उबल रहा है ।
बंद हुईं समता की राहें ।
हर दिल से निकली हैं आहें ।
गलबहियाँ ने ख़ुद काटी हैं,
यारी और वफ़ा की बाहें ।
उत्तर है आतंकित , लेकिन
प्रश्न हँसी से उछल रहा है ।।
कोरोना है , फंगस भी है ।
टी.वी., केंसर औ’ बी.पी. है ।
नेट बिछा जबसे रोगों का,
बिगड़ गई जीवन डी.पी. है ।
दर्द निकलकर घर से बाहर,
गली, सड़क पर मचल रहा है ।
देश हमारा बदल रहा है ,
राजपथों पर टहल रहा है ।
—— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी(सागर),म.प्र.