देश की अखंडता
जो डर से छिपके मिलते, अब कभी कैसे सुनी दलेरी में,
जब धूप खिली ओझल थी, कैसे उड़के चली अंधेरे में,
पढ़कर इतिहास लगा, किस कारण छाई गुलामी,
सतयुग त्रेता द्वापर के, हर काल में रही सलामी,
राजनीति उन राज्यों की, मिल धर्मों के साथ फली,
संतों का मन बढ़ावा था, सबकी फरियाद चली,
बट गए अखाड़े पग पग पर, एक दूजे का भेद बने,
शासक लोगों में फूट पड़ी, सबके रहे मतभेद तने,
जो किसी गली में ना झांका,वह दौड़ा देश की धरती पर,
जलसे फतवे युद्ध हुए, पर देख सके ना टीवी पर,
धर्म-कर्म सच का डंका, बजा कुछ संतों का,
खिचड़ी पकी कुछ अंदर खाने, उठा भरोसा पंथो का,
फूट फूट के हर शासन, में बजते ढोल निराले हैं,
अपने अपने राग की, बजे बसूरिया, सुनने को भोले भाले हैं |