देशभक्ति के पर्याय वीर सावरकर
देशभक्ति के पर्याय वीर सावरकर
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लेखक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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विनायक दामोदर सावरकर अर्थात स्वातंत्र्यवीर सावरकर देशभक्ति के पर्याय थे । देशभक्तों की इस देश में कभी कमी नहीं रही मगर सावरकर तो मानो देशभक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए ही इस देश में जन्मे थे। उनके जीवन पर जब हम विचार करते हैं तो उसमें मानो देशभक्ति का रस इस प्रकार समाया हुआ था जिस प्रकार बताशे में मिठास मिली रहती है । जिस तरह बताशे में से हम मिठास को अलग नहीं कर सकते उसी प्रकार सावरकर के जीवन की प्रत्येक गतिविधि देशभक्ति से जुड़ी हुई है ।
वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को हुआ तथा उनकी मृत्यु 26 फरवरी 1966 को हुई । इस तरह उन्होंने 83 वर्ष से कुछ कम जीवन जिया । यह एक महान जीवन था जो पवित्र तथा त्यागमय भावनाओं से आपूरित था। बचपन से ही सावरकर में मातृभूमि के प्रति भक्ति भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी जो समय के साथ – साथ निरंतर बाहर आती रही । किशोरावस्था में वह गणेशोत्सव तथा शिवाजी-उत्सव जैसे कार्यक्रमों के आयोजनों में सहभागिता के आधार पर अपने देश से अपना प्रेम प्रकट करते थे। 1905 में उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया ।
उनकी सर्वाधिक ऐतिहासिक भूमिका 1907 में प्रकट हुई । 1907 का वर्ष अट्ठारह सौ सत्तावन के पूरे 50 वर्ष बाद आया था। सावरकर उस समय ब्रिटेन में विद्यार्थी के रूप में अध्ययनरत थे। 1857 के वर्ष में अंग्रेजो के खिलाफ भारत में उठी विद्रोह की चिंगारी को ब्रिटिश नजरिए से देखने वाले इतिहासकार अभी तक “गदर” की ही संज्ञा देते आए थे । “गदर” एक अशोभनीय संबोधन था । इसमें अराजकता और लूटपाट की गंध आती थी । यह गदर शब्द उन मनोभावों को व्यक्त नहीं कर रहा था जिनके साथ भारतीय इतिहास के महान नायकों ने अंग्रेजो के खिलाफ 1857 में युद्ध लड़ा था । सावरकर ने बड़ी मेहनत करके एक पुस्तक लिखी और अट्ठारह सौ सत्तावन के तथाकथित गदर को “भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम” की संज्ञा दी । यह पुस्तक ऐसी थी मानो किसी ने लंदन के चौराहे पर ब्रिटिश राज के खिलाफ बम गिरा दिया हो। ब्रिटेन में जब सावरकर ने इस पुस्तक के अंश गोष्ठियों में सुनाए तो तहलका मच गया। ब्रिटिश सरकार उनके पीछे लग गई। इस पुस्तक को छपने से पहले ही ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया । मूल मराठी में लिखी इस पुस्तक को छापने की हिम्मत भारत में कोई प्रकाशक नहीं कर सका। इसका अंग्रेजी अनुवाद सावरकर ने स्वयं किया और यह अनुवाद सर्वप्रथम 1910 में विदेश में छपा ।
सावरकर ब्रिटिश राज की आँख की किरकिरी बन चुके थे। 13 मार्च 1910 को लंदन में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।जुलाई 1910 में जब पानी का जहाज उन्हें लेकर समुद्र में जा रहा था और एक बंदरगाह के पास था ,तभी उन्होंने शौचालय की काँच की खिड़की तोड़कर समुद्र में छलांग लगा दी थी । समुद्र पार करके वह जिस भूमि पर पहुंचे वहां फ्रांस सरकार का शासन था। सावरकर ने वहां उपस्थित फ्रांसीसी सिपाहियों से निवेदन किया कि वह आत्मसमर्पण कर रहे हैं और उन्हें फ्रांस में शरण दे दी जाए । किंतु भाषा-भेद के कारण फ्रांसीसी सिपाही उनका कथन नहीं समझ सके और ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया । वह पहले ऐसे राजनीतिक बंदी थे जिनके ऊपर हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चला । 30 जनवरी 1911 को उन्हें दो आजन्म कारावास का अद्भुत दंड सुनाया गया ,जिसकी अवधि 50 वर्ष होती है ।
उन्हें अंडमान जेल में ले जाकर डाल दिया गया जो कि उस समय “काला पानी” की सजा कहलाती थी । उनके गले में खतरनाक कैदी की तख्ती “डी”लटका दी गई । जेल में उन्हें भयंकर यातनाएं दी गईं। नारियल के रेशे उनसे निकलवाए जाते थे, जिनसे हाथों में खून निकल आता था । दिन भर कोल्हू चलवाया जाता था । रोटी-पानी के बदले भी गालियाँ ही मिलती थीं। बुखार आने पर भी काम कराया जाता था । जेल यात्राएं तो अन्य स्वनामधन्य राष्ट्रीय नेताओं के खातों में भी दर्ज हैं किंतु “काले पानी” का कठोर यातनामय जीवन तो सावरकर ने ही जिया । उनके साथ किसी राजनीतिक बंदी की तरह नहीं अपितु किसी दुश्मन सिपाही की कठोरता के साथ निपटा जाता था । पर वाह रे सावरकर ! इन विपरीत परिस्थितियों में भी तुमने संपूर्ण विश्व के काव्य सृजन का सर्वाधिक अनोखा इतिहास रच डाला । संसार में देशभक्ति से भरी काव्य रचनाएं सृजित करने वाले महान कवियों की कमी नहीं है किंतु बिना कागज-कलम के जेल की दीवारों पर पत्थरों की नोक से काव्य रचना का अद्भुत दृश्य तो सावरकर ने ही साकार कर दिखाया । भला भारत भक्ति की ऐसी रचनाओं को जेल के प्रशासक क्यों पसंद करने लगते ? लिहाजा उनकी रचना-प्रक्रिया पर भी रोक लगने लगी । तब सावरकर ने अद्भुत युक्ति निकाली। वह कविता करते थे और फिर उसको याद कर लेते थे । फिर अपने साथियों को सुनाते थे । जो कैदी जेल से छूटते थे ,वे काले पानी से बाहर आकर उन कविताओं को छपवा कर सुरक्षित कर लेते थे । कठोर यातनाओं के कारण काले पानी की जेल में कैदियों के स्वास्थ्य पर भारी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था । कई कैदी तो मर जाते थे। 1919 में सावरकर काले पानी में भयंकर रूप से बीमार हो गए परंतु मृत्यु शैया पर बैठकर भी वह मृत्यु से नहीं डरे । वह मानते थे कि मृत्यु निश्चित है और देश के लिए जीवन का अर्पण एक सुखद सौभाग्य है । अंततः उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें 1921 में काले पानी की बजाए रत्नागिरी (महाराष्ट्र) में नजरबंद कर दिया गया । किंतु उनकी पूर्ण रिहाई 1924 को ही हुई । यह रिहाई बिना किसी माफीनामे के थी । माफी मांगना सावरकर के रक्त में नहीं था । वह माफी किस बात की मांगते ? माफी मांगने का अर्थ होता है कि जो कार्य हमने किया है वह कार्य गलत किया है और इसका हमें खेद है । सावरकर की रिहाई सिर्फ दो शर्तों के आधार पर हुई थी। प्रथम ,5 वर्षों तक राजनीति में भरना लेना तथा द्वितीय, रत्नागिरी जिले में स्थानबद्ध रहना । यह सशर्त रिहाई तो थी किंतु माफीनामा हरगिज़ नहीं था । कतिपय इतिहासकार सावरकर के कद को छोटा करने की नीयत से उपरोक्त शर्तों को माफी जैसा भ्रम पैदा करने का प्रयत्न करते हैं जो उनका अनुचित प्रयास ही कहा जाएगा ।
सावरकर जाति प्रथा के विरोधी थे। 1931 में उन्होंने रत्नागिरी के पतित-पावन मंदिर को सब जातियों के लिए खुलवाने के प्रश्न पर आंदोलन भी किया था ।
सावरकर ने पाकिस्तान के निर्माण की मांग का जो कि 1940 के बाद आरंभ हो गई थी बहुत प्रबलता से विरोध किया। यह बहुत स्वाभाविक था । पाकिस्तान के निर्माण की मांग भारत के बड़े भूभाग को हिंदू विरोधी राष्ट्र में बदलने की मांग थी । यह हिंदू विरोध के विचार की सबसे बड़ी आवाज थी । इसके बाद हिंदुओं से विरोध करने तथा उन से सामंजस्य बिठाने के लिए कुछ बाकी न था । यह संयोग नहीं था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में तथा हिंदू महासभा की स्थापना उससे एक वर्ष पूर्व 1924 में हुई । पाकिस्तान के निर्माण की चुनौती तो 20 वर्ष बाद ही सामने आई किंतु जिस तरह सूर्यग्रहण के बहुत पूर्व ही संवेदनशील प्राणी उसके आगमन की आहट सुन लेते हैं ,उसी प्रकार चेतना पूर्ण राष्ट्रीय मस्तिष्क भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय विभाजन की अपमानजनक तथा घोर विभाजक घातक प्रवृत्ति को पहचान रहे थे । सावरकर उनमें अग्रणी थे ।
वीर सावरकर संदिग्ध रूप से एक महान देशभक्त थे । उनका जीवन देश के लिए था और देश के लिए ही अपने प्राणों को हथेली पर रखकर खतरों से जूझना उनका स्वभाव था । सावरकर जी की मृत्यु को लंबा समय बीत जाने के बाद आज जब हम उनके जीवन और कार्यों का स्मरण करते हैं तो हमें उस 24 वर्षीय नवयुवक का स्मरण आता है जिसने बहुत आस्था और स्वाभिमान पूर्वक पहली बार 1857 के गदर को भारत का प्रथम स्वातंत्र्य समर कहकर पूरे देश का ध्यान आकृष्ट किया था । उस युवक का स्मरण आता है जो गिरफ्तारी में जहाज से समुद्र में कूद पड़ा था और जिस पर अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुकदमा चला था। वह युवक स्मरण आता है जो अंडमान की जेल में कोल्हू चला रहा होता है । सवाल यह है कि अपने यौवन की इस प्रकार आहुति सावरकर ने किसके लिए दी थी ? निश्चय ही यह उनका योगदान था ,जो उन्होंने निस्वार्थ देश को दिया था ।
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