देख रहा था
नदी किनारे बैठ
डुबकियाँ देख रहा था
कैसे उछलें डूब
मछलियाँ देख रहा था
ज़ज़्बातों की लहरें
उठती जब -जब मन में
ख़ुद में ख़ुद को झाँक
खिड़कियाँ देख रहा था
आँखों के बादल भी
बरसे उसी समय ही ,
जब-जब दिल पर गिरी
बिजलियाँ देख रहा था
मन में कोई
दस्तक देता लगता मुझको ,
और मैं ख़ुद में पड़ी
नादानियाँ देख रहा था
‘महज़’ ख़यालों को
पकड़े कोई नाच रहा था
पाँव में बाँधी हुई
पैजनियाँ देख रहा था