दूर दूर रहते हो
गीतिका
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आप क्यों दूर दूर रहते हो।
बात मन की कभी न करते हो।
दूरियों को हमें मिटाना है।
व्यर्थ ही खूब कष्ट सहते हो।
कुछ कहा आपसे मुहब्बत ने।
बूझकर भी नहीं समझते हो।
अब चमक देखिए स्वयं की भी।
किस लिए तुम भला निखरते हो।
अब खुले मन करो विवेचन भी।
क्यों भला इस तरह झिझकते हो।
ढूंढने दो खुशी निगाहों को।
स्वप्न इनमें हसीन रखते हो।
अश्रु हों ग़म खुशी लिए चाहे।
पंखुड़ी की तरह न झरते हो।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, १२/०८/२०२४