दुहिता
स्त्री ईश्वर की एक ऐसी अनुपम कृति , जो अपने सभी स्वरूपों में शिरोमणि है। माता के रूप में उसका मातृत्व, पुत्री के रूप में माता पिता का सम्मान, बहन के रूप में भाई के प्रति असीम प्रेम, पत्नी के रूप में उसका पतिव्रता धर्म, ग्रहणी के रूप में उसकी कर्तव्यपरायणता, शिक्षक के रूप में त्याग, अनुशासन और आदर्श की महान मूरत। और इन सब से भी बढ़कर एक नारी का नारीत्व जो प्रेत्यक स्त्री का आभूषण है।
विश्वगुरु भारत के प्राचीनतम शास्त्रों में स्त्री को दुहिता का स्थान प्राप्त है। दुहिता अर्थात् जो दो घरों का हित करने वाली। विवाह के पूर्व मायके का तथा विवाह पश्चात ससुराल में लक्ष्मी बनकर आना। स्त्री ही जगत जननी है, स्त्री ही शक्ति है, श्रद्धा है, ज्योति है, तप है, और स्त्री ही पूजा है। और हो भी क्यों न ? आखिर ब्रह्मा के बाद इस भूतल पर मानव को वितरित करने वाली नारी ही है।
मनुस्मृति में वर्णित है:
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला : क्रिया: ॥
अर्थात जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहा देवता रमण करते है और जहा स्त्रियों की पूजा नही होती , उनका सम्मान नही होता है वहा किए गए समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते है।
हम निरंतर आधुनिकता की ओर अग्रसित हो रहे है किंतु मेरी दृष्टि से यह आधुनिकता एक विशाल अभिशाप से कम नहीं है क्योंकि ऐसी आधुनिकता का क्या तात्पर्य ? जहा स्त्री का सम्मान न हो। हम सभी कहते है की हम सामाजिक प्राणी है, हम सभ्य समाज में रहते है परंतु वो समाज भी निरर्थक है जो स्त्री के सतीत्व की रक्षा न कर सके।
इस सभ्य वा आधुनिक समाज से तो श्रेष्ठ हमारी प्राचीनता ही है। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों का जो स्थान था , वह बात किसी से छिपी नहीं है, वो जगविदित है। न सतिप्रथा थी, ना बहुविवाह । स्त्री के बिना यज्ञ संपन्न न होता था। शिक्षा के क्षेत्र में गार्गी , मैत्रीय , घोषा , अपाला , ममता और इंद्राणी आदि विदुषियो से उस काल की अमृतमय शिक्षा का दर्शन होता है। संभवत: आधुनिकता की इस भ्रामक दौड़ में हम अपना समृद्ध और गौरवमयी इतिहास पूर्णतः भूल चुके है।
हम प्रतिवर्ष दशहरे के दिन अहंकारी, घमंडी , लंकापति दशानन रावण के पुतले को जलाते है, परंतु वह रावण आज के सुशिक्षित वा सभ्य समाज से अत्यंत अच्छा था। उसने माता सीता का अपहरण अवश्य किया परंतु उनके शरीर को नाममात्र का भी स्पर्श न किया। उनका सतीत्व भंग न किया। नारी प्रत्येक काल में पूजनीय रही है , हर काल में उसका नारीत्व श्रेष्ठ रहा है।
सुसभ्य मनुष्य की स्वस्थ , संयत तथा शुभ बुद्धि नारी जाति को अधिकार अर्पित करने के लिए कहती है। वही मनुष्य की सामाजिक नीति है और उसी से समाज का कल्याण होता है। समाज का कल्याण इस बात से नही होता कि किस धर्म की पुस्तक में क्या लिखा है और क्या नहीं ?
ईश्वर ने उसे शारीरिक रूप से दुर्बल अवश्य बनाया है परंतु उसके बल के अभाव की पूर्ति किसी धर्म पुस्तक की बात की खाल निकालकर उनके अबोध्य अर्थों की सहायता से नही की जा सकती।
आज नारी को मात्र एक भोग की वस्तु समझ ली गई है। इसी का परिणाम आज हमारे सामने है। क्या हम नारी के साथ दुर्व्यवहार , दुराचरण , दुष्कर्ष करते समय यह भूल जाते है की हमे जन्म देने वाली भी एक स्त्री है, हमारी भार्या भी एक स्त्री है , हमारी बहन भी एक स्त्री है और हमारी बेटी भी एक स्त्री है।
एक स्त्री जो नौ माह तक अपनी संतान को अपने गर्भ में रखती है, उसे जन्म देती है। इतना ही नहीं जन्म के पश्चात भी उसे जीवित रखने के लिए अपने स्तनों से उसे दुगध पान कराती है। उस माता की व्यथा को न तो मैं अपनी कलम के माध्यम से व्यक्त कर सकता हूं और न ही संसार का कोई प्राणी उस व्यथा की कल्पना कर सकता है। कहा भी गया है माता रूप में स्त्री भूमि से भी उच्च है।
हम विद्यालय में प्रतिदिन प्रात: काल मे प्रार्थना के समय यह शपथ ग्रहण करते है भारत हमारा देश है और समस्त भारतीय हमारे भाई वा बहन है……..।
तो क्या हमे उसी स्त्री जो हमारी बहन है , के साथ दुष्कर्म करते समय लज्जा नहीं आती । क्या हम पूर्णतः निर्लज्ज हो गए है? पूर्णतः बेशिस्त हो चुके है? मेरी दृष्टि से इसका कारण लोगो द्वारा भारतीय सभ्यता , संस्कृति , समृद्ध इतिहास , गौरवमयीपरंपरा को भूलना तो है ही साथ ही एक और रूढ़िवादी विचारो ने उसके हृदय में यह भाव भर दिया है की पुरुष विचार , बुद्धि, वा शक्ति में उससे श्रेष्ठ है और उसके भीतर की नारी प्रवत्ति भी उसे स्थिर नहीं करने देती। परंतु आज हमारे सामने यह कैसी विडम्बना आ गई है की जिस विश्वगुरु भारत ने सम्पूर्ण विश्व को नारी की महत्ता उसके सम्मान वा आदर से परिचित कराया आज वह स्वयं इस बात को भूलता जा रहा है।
स्त्री जो न आधी है, ना ही अधूरी है परंतु उसके बिना यह जगत पूरा नहीं है।