दुश्मन
_लघुकथा _
दुश्मन
युद्ध के अग्रिम मोर्चे पर लड़ते हुए वे दोनों, एक हैण्डग्रेनेड से बुरी तरह चोटिल होकर वीरान प्रदेश की इस गहरी खाई में आ गिरे थे।
होश आने पर पाया..दोनों के अतिरिक्त दूर-दूर तक कोई नही था। एक दूसरे को देखकर वे मुस्कराए। ऐसे हालात में किसी दूसरे का साथ पाकर उन्हें स्वभाविक प्रसन्नता हुई थी।घावों की पीड़ा से दोनों का रोम-रोम जल रहा था और अन्तड़ियां..मारे भूख-प्यास के बिलबिला रही थीं।
एक की बोतल में थोड़ा पानी था। सहसा आगे बढ़कर उसने, दूसरे के सामने पानी पेश कर दिया। होंठ तर होते ही दूसरे की बुझती आंखों को जैसे नई रौशनी मिल गई। कांपते हाथों से उसने अपनी जेबें टटोली और चॉकलेट का एक पुराना टुकड़ा निकालकर पहले के मुंह में ठूंस दिया। इस अपनत्व से दोनों की आंखें भर आई थीं।
आंसुओं का सैलाब कुछ थमा तो..दोनों बेहद चिंताग्रस्त हो गए। वे कर्तव्यपरायण सैनिक थे और उनके देश परस्पर दुश्मन थे! यों मित्रता करके अपने-अपने मुल्क से गद्दारी भला वे, कैसे कर सकते थे!!
“ब्रेव यंगमैन..आओ हम लड़कर दम तोड़ दें।” प्रतियुत्तर में दूसरे ने भी हूंकार भरी।
कुछ देर के पश्चात वहां एक दूसरे का हाथ थामे दो लाशें पड़ी थीं..दूर कहीँ सैनिक परेड की आवाज़ भी गूंज रही थी।
(यह लघुकथा ‘दुश्मन’ दिनांक 28.8.16 को सम्पन्न लघुकथा-इतिहास की प्रथम “फ़ेसबुक लघुकथा-संगोष्ठी” का हिस्सा भी बन चुकी है..अधिकाधिक पाठकजन तक पहुंचाकर आपका मत जानने के निमित्त इसे..यहां पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है!)