दुर्मिल सवैया
दुर्मिल सवैया
जग जा अब विस्तर छोड़ प्रिये प्रभु भानु निहारत हैं तुझको।
करना उनका प्रिय दर्शन तू अब जाग सखी लखना प्रभु को।
फिर चाय बनाय पियो सखिया हँस के प्रिय के मन में बसना।
उस के उर में कुछ बूंद भरो सखि री!नित प्रेम किया करना।
तुम मंगल रूप शिवा जिमि हो अति मोहिनि गौर सदा सुखदा।
प्रिय देवि सुजान महान सुखांत सुकोमल राग विधा मधुदा।
अति निर्मल शिष्ट प्रभा वसुधा गगनांगन प्रांगण में रहती।
शुभ अमृत भोग बनी महके सखि! तू मधुमास बनी दिखती।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र,हरिहरपुर,वाराणसी -221405