दुर्गोत्सव
दुर्गोत्सव // दिनेश एल० “जैहिंद”
दशहरे के दिन चल रहे थे। दुर्गोत्सव अपने चरण पर था। आए दिन लोग मेला घूमने की प्लानिंग करते हुए नज़र आ रहे थे। कोई मेला घूमने के आनंद से वंचित होना नहीं चाहता था। हर रोज कोई न कोई किसी न किसी मेले में जाने का प्रोग्राम बनाता था।
गाँव के सारे छोटे-बड़े बच्चे व युवा नर-नारी दुर्गोत्सव का आनंद उठाना चाहते थे। वे नये बच्चे-बच्चियाँ अधिक उत्साहित थे जिन्होंने कभी दुर्गा-प्रतिमा के दर्शन नहीं किये थे या दुर्गा-मेला नहीं देखा था।
कुसुमी के चार बच्चे थे। दो बेटियाँ और दो बेटे। बड़ी वाली मधु थी। उससे छोटा बेटा कुमार था। फिर उससे छोटी सुधा थी और चौथा अंतिम बेटा सुंदर था।
चारों बच्चे भोजन के बाद इकट्ठे बैठे थे। वे दुर्गोत्सव मनाने की खुशी में बहुत ही उत्साहित थे। दशहरा चढ़ने के साथ ही वे आपस में अपनी-अपनी मंशा व्यक्त करने लगे थे। कोई गाँव के ही मेले में जाने की बात करता तो कोई पास के छोटे शहर में जाने की बात करता ……..तो कोई दूर- दराज के बड़े शहर का मेला घूमने को कहता।
षष्ठी की रात का समय था। चारों भाई-बहन सोने जाने से पहले आपस में बातें कर रहे थे।
बड़ी बेटी मधु ने कहा – “सुनो, पहले हम गाँव के मेले में घूमने चलेंगे। फिर कहीं और………समझे!”
सबसे छोटे बेटे सुंदर ने उसकी हाँ में हाँ मिलायी और कहा – “हाँ… दीदी! हम लोग पहले मठिया का मेला देखने चलेंगे। खूब मज़ा करेंगे।”
तभी बड़े बेटे कुमार ने कहा -“नहीं, नहीं! हम लोग पहले दिन दौलतपुर का मेला घूमेंगे। वहाँ का मेला बड़ा गठा हुआ है। बारह जगहों पर बारह पंडाल लगे हैं। बड़ी- बड़ी मूर्तियाँ लगीं हैं। खूब सजावट हुआ है। बड़ी भीड़ हो रही है। वहाँ तो बड़ा मज़ा आएगा।”
बड़े भाई की बात सुनने के बाद सुंदर पुन: बोला – “नहीं भइया… नहीं! मैं तो दौलतपुर का मेला घूमने नहीं जाऊँगा। मुझे भीड़ से डर लगता है।”
तभी छोटी बेटी सुधा ने कहा – “इसमें डरने की कौन-सी बात है! क्या हम लोग तुम्हारे साथ नहीं रहेंगे!”
“….नहीं छोटी दीदी।” तत्काल सुंदर ने जवाब दिया – “मैं छोटा हूँ न, दूर-दूर तक चल नहीं पाऊँगा। थक जाऊँगा।”
“नहीं थकेगा तू। मैं हूँ न! मैं तुझे कभी-कभी गोद उठा लूँगी, ठीक।” सुधा ने उसे समझाया।
“तब तो जरूर चलूँगा।” चट सुंदर ने जवाब दिया – “खूब मज़ा करूँगा। बहुत सारे खिलौने लूँगा। मशीन गन लूँगा। रॉकेट लूँगा। एक हेलिकॉप्टर भी खरीदूँगा।”
इतना कहकर वह ताली बजाने लगा और शोर करने लगा।
“तू तो खुद का बोझ ढो ही नहीं पाएगी और छोटू को गोद उठा पाएगी?” कुमार कहकर हँसने लगा।
ऊँची हंसी और ऊँचा शोर सुनकर कुसुमी बच्चों के पास आई। और पूछा – “क्या चल रहा है?”
“मेला घूमने की तैयारी।” सुंदर ने ही जवाब दिया – “कल हम लोग दौलतपुर मेला घूमने जाएंगे।”
“दौलपुर मेला ! नहीं, तुमलोग कल मठिया
पर घूमने जाओगे, ठीक।” कुसुमी ने जैसे अपना फैसला सुनाया।
बड़े बेटे कुमार ने अपना मुँह बिचकाया। शेष ने उसको चिढ़ाया यह कहकर कि “चलो ठीक हुआ। चलो, मठिया पर ही चलें। अब तो अष्टमी को दौलतपुर मेला चलेंगे।”
इतना सुनने के बाद सभी बच्चे चुपचाप हो गए। बिना कुछ कहे सबों ने अपने-अपने बिस्तर पर जा गिरे, और सो गए।
****
रात गई, षष्ठी बीती, सप्तमी आ गई। सभी बच्चे जगते ही मेले के सपने में खोए उठे।
जोश-खरोश के साथ सबने अपने-अपने काम निपटाये। नहा-धोकर तैयार हुए और भोजन करके कुछ आराम किए।
दशहरा की छुट्टियाँ थी ही। सभी पूर्णतः आश्वस्त थे।
३ बजते ही सभी सजधज कर तैयार हुए। कुछ ने अपने-अपने पास के पैसे लिये और कुछ पैसे अपनी मम्मी कुसुमी से लिये फिर घर से निकलते-निकलते कुछ पैसे उनके पापा से मिल गये। सभी अपने-अपने पैसे संभाल कर अति प्रसन्न थे।
टोला-टपड़ी के कुछ बच्चों के साथ चारों बच्चे मेला के लिए निकल लिये।
मठिया के दशहरे का मेला……..
आस-पास के गाँवों में बड़ा मशहूर था। मेले में बड़ी भीड़ होती थी। विशाल शिव मंदिर की दाहिनी तरफ बड़े खाली स्थान में माँ दुर्गा का पंडाल बना हुआ था। पंडाल देखने में बहुत ही खूबसूरत लग रहा था। उसके बीचो-बीच माँ दुर्गा…..माँ सरस्वती व माँ लक्ष्मी तथा गणेश व कर्तिक भैया के साथ मनोहारी ढंग से सुशोभित हो रही थी। पंडाल सतरंगी वस्त्रों से सजा हुआ था। जगह-जगह उसके अंदर गमले में तरह-
तरह के फूल लगे हुए थे। निकास द्वार पर क्यारियों में विभिन्न फूल लगे थे।
ठीक सामने बहुत बड़ा तालाब सुंदर लग रहा था। तालाब के तीनों तरफ लंबी-चौड़ी सीढ़ियाँ भीड़ को आकर्षित कर रही थीं। उसके ठीक बगल में छठी मैया की तमाम तिकोनी बेदियाँ दर्शनीय लग रही थीं। और तालाब के एक ओर से गाँव से आती चौड़ी सड़क के दोनों तरफ तमाम दुकानें सजी थीं। कुछ खिलौनों की दुकानें, कुछ जलेबियों की दुकानें, कुछ बैलून की दुकानें, कुछ बैलून पर निशाना साधने की दुकानें, कुछ चटक-मटक व तली हुई चीजों की दुकानें, कुछ भुंजा-चबेना की ठेलियाँ, कुछ पान-बीड़ी- सिगरेट की दुकानें, सभी मेला की शोभा बढ़ा रही थीं।
कुछ चलती-फिरती खाने-पीने की दुकानें एक जगह से दूसरी जगह आती-जाती दिखाई देती थीं।
सड़क से सटी तिकोनी बेदियों के ठीक बगल में सिंगार-पटार की सभी चीजों की कई दुकानें लाइन से सजी थीं। वहाँ युवा लड़कियों व औरतों की काफी भीड़ थी। कुछ दुकानें बिना छिलके के नारियल की
भी देखने में आ रही थी।
छोटे-बड़े बच्चे रंग-बिरंगे नये कपड़ों में हर्षोत्साहित घूम-टहल रहे थे। वे सतरंगी नज़ारा देखकर अचम्भित थे। बड़े-युवा अपनी नज़रें घुमा-घुमाकर अपनी जरूरत की कुछ चीजें तलाशने में मस्त-मग्न थे।
“हम सब सबसे पहले मूर्तियों के दर्शन करेंगे। फिर चारों तरफ घूमेंगे।” मधु ने अपने भाई-बहनों को समझाते हुए कहा – “उसके बाद मनचाही चीजें खाएंगे-खरीदेंगे। फिर घूमते-घूमते घर के लिए चल देंगे, ठीक।”
सुधा ने हाँ में हाँ मिलाया। शेष ने कहा – “ठीक है दीदी।”
चारों भाई-बहनों ने पहले सभी मूर्तियों के दर्शन किये। देवी-देवताओं के आशीर्वाद लिये। फिर इधर-उधर ताकते-झाँकते निकल लिये।
सुंदर…शेर पर सवार माता की मूर्ति, भैंसा व भैंसासुर को पहली बार देकर अचम्भित था। उसके मन में तमाम सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे। वह जिज्ञासा से भरा जा रहा था। परन्तु उसकी जिज्ञासा को शांत करने वाला कोई नहीं था।
उसने एक बार बड़ी दीदी से और बड़े भैया से कुछ पूछना चाहा। पर उन दोनों ने बाद में कहकर बताने से इंकार कर दिया।
अब चारों के चारों मेला घूमने लगे। एक जगह खिलौने की दुकान पर “मशीन गन” देखकर सुंदर लपका – “दीदी, वो मशीन गन!”
“हाँ, ठीक है। पर अभी नहीं खरीदेंगे।” मधु ने मना किया – “पहले घूम तो लेते हैं। चलो आगे, और क्या-क्या है देखते हैं।”
दो कदम आगे बढ़ते ही बाजू वाले की दुकान भी खिलौने की ही थी। उसकी दुकान पर भिन्न-भिन्न के खिलौने थे। सुंदर को उनमें हेलिकॉप्टर दिख गया। वह वहाँ तनिक ठमक गया और अपने बड़े भैया को इशारा करके कहा – “भैया….. वो देखो…. हेलिकॉप्टर! मुझे ले दो ना!”
कुमार ने मधु को कहा कि अब छोटू हेलिकॉप्टर को देखकर ललचा रहा है। “जाने दो” कहकर मधु ने छोटे भाई को मनाने को कहा और उसे मनाते हुए सभी को खाने-पीने की दुकानों की ओर भीड़ से निकाल कर जल्दी-जल्दी ले गई।
सभी एक समोसे वाले की दुकान पर रुक गये। समोसे वाला आलू चाप, छोले, समोसे, ब्रेड चाप, बेसन पकौड़े, प्याजू (भजिया), अंडा चाप आदि बना रहा था। सभी ने समोसे, छोले और पकौड़े खाये। पैसे दिए आगे बढ़ गये।
आगे जाकर गोलगप्पे की दुकान थी। वहाँ सभी रुक गये। सुधा ने गोलगप्पे खाने को कहा। परन्तु कुमार ने गोलगप्पे खाने से मना कर दिया और कहा – “तुम दोनों खा लो। मैं और छोटू चाऊमीन खा लेते हैं।”
थोड़ी देर बाद सभी भीड़ से बचते हुए एक जलेबी की दुकान पर रुक गये। वह दुकान जलेबी व समोसे में स्पेशल थी। मधु ने मम्मी -पापा के लिए १ किलो जलेबी और १ दर्जन समोसे का ऑर्डर दिया।
तभी डीजे से गीत की आती तेज ध्वनि रुक गई और कुछ खास अनाउंस हुआ सुनाई पड़ा – “आदर्श ग्राम सोहापुर के सम्माननीय जनता, भाइयो-बहनो और माताओ! आज रात ८ बजे से हमारे जय माता दी ग्रुप की ओर से हर साल की तरह इस साल भी गाँव के कलाकारों द्वारा रामायण की सुंदर झाँकियाँ, कॉमेडी व डांस कार्यक्रम रखे गये हैं।
………….आप सबों से विनम्र आग्रह है कि आप सभी दुर्गा पूजा के प्रांगण में भारी से भारी संख्या में उपस्थित होकर हमारे सभी कलाकारों की कलाकारी का आनंद उठाएं, उनका मनोबल बढ़ाएं, ……. और उन्हें आशीर्वाद प्रदान करें।”
कुमार ने भी बड़े ध्यान से हो रहे अनाउंस को सुना। सभी एक-दूसरे के मुँह तकने लगे। मन ही मन मुस्काए। सभी के चेहरे पर चमक थी।
तब तक जलेबी वाले ने १ किलो जलेबी
व १ दर्जन समोसे पैक करके मधु को पकड़ाये। मधु थैले थाम लिये फिर उसे पैसे दिये और सबको साथ लेकर घर की ओर चल दी।
घर लौटते-लौटते ६ बज चुके थे।
****
आज अष्टमी का दिन है। बच्चे सुबह जग गए। दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर नाश्ता- पानी किये और अपने छोटे-मोटे कामों में लग गए।
बाद में खाना खाने से पहले सबों ने स्नान किया फिर भोजन किया और अपने-अपने कपड़े पहने। आज दौलतपुर का मेला जो जाना था। मेला जाने के लिए आज मम्मी- पापा भी तैयार हो चुके थे। सभी लोग तैयार होकर दौलतपुर का मेला देखने के लिए निकल पड़े। सुंदर मम्मी-पापा के संग सहज महसूस कर रहा था।
घर से दूर आकर सड़क पर सभी ऑटो रिक्शा में बैठे और यही कोई २० मिनट बाद सभी दौलतपुर मेले में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर सभी मेला घूमने लगे।
दौलतपुर के दशहरे का मेला…..
बड़े-बड़े ऊँचे-ऊँचे पंडाल। पंडाल के अंदर लंबी-चौड़ी भव्य मूर्तियाँ। माता दुर्गे की विशाल मूर्ति देखते ही बनती थी।
एक जगह का पंडाल तो बड़ा ही ऊँचा और लंबा था। दूर से देखने पर विशाल भवन-सा लग रहा था। पंडाल के अंदर माता दुर्गे और भैंसासुर की लड़ाई का दृश्य दिखाई दे रहा था। मानो ऐसा लग रहा था कि माता दुर्गे और भैंसासुर में पहाड़ों के बीच घमासान लड़ाई चल रही हो। देख कर बड़ा ही भय लग रहा था मगर था बड़ा ही चित्ताकर्षक!
मधु, कुमार, सुधा और सुंदर बारी-बारी से अपने माता-पिता के साथ सभी पंडालों की मूर्तियाें का दर्शन करते रहे और दशहरे के मेले का आनंद उठाते रहे। कभी-कभी सुंदर थक जाता था तो उसके पापा उसे अपनी गोद में उठा लिया करते थे।
एक जगह तो लंबा-चौड़ा रंगमहल लगा हुआ था। अंदर बड़े-से मंच पर विद्वान संतों के प्रवचन हो रहे थे। कुसुमी, उसके पति व सभी बच्चे थोड़ी देर के लिए वहाँ ठहर गये और प्रस्तुति दे रहे एक संत के प्रवचन सुनने लगे – “…………जीवन एक उत्सव है। यह खुशियों व उत्साह से भरा हुआ है। इनके बिना जीवन नीरस व सूना-सूना है। अपने जीवन में चारों तरफ खुशियाँ-ही-खुशियाँ बिखरी पड़ी हैं।….. हमें आवश्यकता है कि थोड़ा वक़्त निकालकर मनोरंजन, उत्सव
व त्योहारों से आनंद उठाएं और…….. अपने-अपने जीवन को खुशहाल बनाएं।”
प्रलचन तो लगातार चलता रहा। परन्तु घर लौटने में देर न हो जाय सो कुसुमी, उसके पति व चारों बच्चे मेला घूमने हेतु आगे बढ़ लिये।
एक दूसरी जगह दुर्गा पंडाल के पास ही खाली मैदान में बहुत सारे आधुनिक खेल-तमाशे लगे थे। आसमानी झूला, चकरी झूला, नौका झूला, नेट जम्पिंग, ब्रेक डांस, सवारी गाड़ी, मौत का कुआँ और पता नहीं क्या-क्या?
मौत का कुआँ खेल देखने के लिए काफी लोगों की भीड़ लगी थी। बहुत सारे बच्चे- बच्चियाँ तरह-तरह के खेल का आनंद ले रहे थे।
मधु और कुमार की जिद्द पर उनके लिए ब्रेक डांस झूले की टिकट कटाई गई और वे दोनों ब्रेक डांस झूले का आनंद लिये। सुधा के लिए नौका झूला और सुंदर के लिए नेट जम्पिंग की टिकट ली गई। उन दोनों ने भी अलग-अलग झूले का आनंद उठाया। फिर सबने सवारी गाड़ी का आनंद उठाना चाहा। फिर क्या…..टिकट कटी और सबने सवारी गाड़ी की ८-१० मिनट तक सैर की।
मधु और कुमार ने मौत का कुआँ खेल देखने की मंशा रखी। फिर क्या था! सबके लिए इस खेल की टिकट कटी और सबने मौत का कुआँ खेल देखा और देखकर दंग रह गये! क्या कमाल का खेल था!
अब तक सभी बच्चे ८-१० पंडाल घूम चुके थे। खेल-तमाशों का भी आनंद उठा चुके थे। अब बच्चे घूमते-घूमते थके से लगते थे। उनका चेहरा बुझा-बुझा-सा हो गया था।
कुसुमी और उसके पति ने अपने बच्चों का मन टटोलने के लिए उनसे कहा – “एक-दो और पंडाल घूम लेते हैं!”
“नहीं मम्मी…बस। अब घर चलो। बहुत थक गये हैं।” झट सुंदर ने कहा – “…. लेकिन घर चलने से पहले मेरे खिलौने खरीद दो।”
अरे… वाह! सुंदर का तो कोई खिलौना ही नहीं खरीदा गया।” सुधा को अब ध्यान आया – “चलो उधर, उधर बहुत खिलौने वाले हैं।”
शेष बच्चों ने भी सुधा की बातों में बात मिलाई।
फिर सुंदर की पसंद के कुसुमी ने मशीन गन व हेलिकॉप्टर खरीदे। सुंदर अपनी पसंदीदा खिलौने पाकर अति प्रसन्न था।
“…….तो अब चलो कुछ खाते-पीते हैं।” कुसुमी के पति ने कुसुमी से कहा।
सभी बच्चे खाने की बातें सुनकर प्रसन्न हो उठे। उनकी बुझी सूरत पर थोड़ी रौशनी फैली। सुंदर तो जैसे चहक ही उठा।
सबने सड़क के किनारे एक अच्छे-से होटल में बैठकर छोले-समोसे खाये फिर दो-दो रसगुल्ले भी खाये। तथा आधा किलो संदेश मिठाई पैक करवाकर थैले में डाला और मेन सड़क पर पैदल आकर घर के लिए ऑटो रिक्शा लिया।
२० मिनट बाद वे घर पर थे। अब रात का ७ बज चुका था ।
****
कुसुमी के सभी बच्चे नवमी के रोज कहीं घूमने नहीं गये। हालांकि कुमार अपने मित्रों के साथ गाँव के मठिया के दशहरे मेले में कई बार घूमने गया।
फिर वह पता करके आया कि दशमी अर्थात दशहरे के दिन गाँव के कलाकारों द्वारा राम- लीला की कुछ झाँकियाँ प्रस्तुत की जाएगी और जय माता दी ग्रुप की तरफ से रावण- दहन का कार्यक्रम होगा।
दशहरा अर्थात् विजया दशमी…….
पाठको… मैं पहले ही बता आया हूँ कि गाँव के मठिया के दशहरे का मेला आस-पास के गाँवों में बहुत मशहूर था। यहाँ हर साल रामलीला और रावण-दहन का कार्यक्रम दर्शकों के मनोरंजन हेतु प्रस्तुत किया जाता था। अतः दूर-दूर के गाँवों से अत्याधिक संख्या में लोग आकर रामलीला और रावण-दहन का कार्यक्रम बड़े आनंद से देखते थे। आज रामलीला की कुछ झांकियाँ और रावण, कुंभकरण व मेघनाथ का दहन होने को था।
गाँव के मठिया की धरती पर पूरा गाँव उमड़ पड़ा था। कुसुमी भी अपने पति और चारों बच्चों के साथ गई थी। मठिया की धरती दर्शकों से खचाखच भरी थी। दर्शक राम और रावण के युद्ध की झाँकियाँ देख रहे थे – “राम और रावण का युद्ध हो रहा है। राम तीर पर तीर छोड़ रहे हैं। दोनों ओर से तीरों की बौछार हो रही है। अंतत: राम का एक तीर रावण की नाभि में लगता है। खाली मैदान में रावण, कुंभकरण और मेघनाथ के पुतले हैं। रावण के पुतले से एक चिंगारी-सी उठती है फिर देखते ही देखते रावण, कुंभकरण और मेघनाथ के पुतले मिनटों में जलकर राख हो जाते हैं।”
सभी दर्शक “जय श्री राम की” की जयकारा लगाते हुए अपने-अपने घर को लौट गये। कुसुमी भी अपने पति और बच्चों के साथ घर लौट आई। बच्चे बड़े आनंदित व प्रसन्न थे।
रात का ९:३० बज रहा था। १ घंटे बाद गाँव में सन्नाटा छा गया।
=============
दिनेश एल० “जैहिंद”
22.10. 2021