दुनिया अब व्यावसायिक हो गई है,रिश्तों में व्यापार का रंग घुल
दुनिया अब व्यावसायिक हो गई है,रिश्तों में व्यापार का रंग घुल गया है।
भावनाओं की जगह ले चुका है स्वार्थ,जहाँ मुनाफा है, वहीं होता है प्यार का गठबंधन।।
दोस्ती और प्रेम भी व्यापार बन गए हैं,रिश्तों में लेन-देन के तार बंध गए हैं।
जो दे सकता है फायदा, वही है अपना,नहीं तो मुँह फेर लेते हैं सारे सपने सपने।।
परिवार में भी दरारें पड़ने लगी हैं,भाई-बहन में भी लालच की रेखाएँ खिंचने लगी हैं।
बुजुर्गों को बोझ समझा जाने लगा है,अपनों का प्यार भी अब सौदे पर बिकने लगा है।।
प्रेमी-प्रेमिका भी एक दूसरे को तौलते हैं,प्यार में भी लेन-देन का हिसाब रखते हैं।
जो दे सकता है सुख-सुविधाएँ, वही है अपना,नहीं तो रिश्ता टूट जाता है,हो जाता है अपनापन का नाश।।
यह व्यावसायिक दुनिया कैसी हो गई है,रिश्तों में भावनाओं की जगह खाली हो गई है।
कहाँ गया वो प्यार, वो अपनापन, वो विश्वास,अब सब कुछ है स्वार्थ का ही मापदंड।।
क्या यही है प्रगति? क्या यही है सभ्यता?क्या इसी व्यावसायिकता में है मानवता?ओ इंसान! जाग जा, संभल जा,
वरना खो देगा तू अपने रिश्तों का सुख।।
प्रेम और त्याग से ही टिकते हैं रिश्ते,व्यापार से नहीं मिलते दिलों को सुख।
बदलें अपनी सोच, बदलें अपना व्यवहार,वरना होगा पछतावा, होगा जीवन बेकार।।