दुआ सलाम
लघुकथा
दुआ सलाम
“मे आई कम इन सर।” रमेश कुमार ने बैंक मैनेजर के कक्ष का दरवाजा खोलते हुए पूछा।
“यस, कम इन। आइए बैठिए। बताइए कैसे आना हुआ ?” बुजुर्ग बैंक मैनेजर ने कहा।
“सर, केवाईसी अपडेट और एड्रेस चैंज कराने के लिए आया हूँ। हाल ही में मैंने आपके शहर रायपुर के केंद्रीय विद्यालय में लेक्चरर के पद पर ज्वाईनिंग दी है। इसके पहले भोपाल में था।” रमेश कुमार ने कुछ डॉक्यूमेंट मैनेजर की ओर बढ़ाते हुए कहा।
“अच्छा तो आप रमेश कुमार जी हैं। लेक्चरर हैं केंद्रीय विद्यालय में।” मैनेजर ने कहा।
“जी सर। आधार कार्ड, पेनकार्ड, आई कार्ड और ट्रांसफर लेटर की कॉपी आपके हाथ में हैं। इनकी ओरिजनल कॉपी इस फाइल में है।” रमेश कुमार ने कहा।
“रमेश कुमार जी, क्या हम लोग एक दूसरे से परिचित हैं ?” मैनेजर ने पूछा।
रमेश कुमार ने कुछ देर दिमाग पर जोर डालने के बाद कहा, “नहीं सर। हो सकता है कि कभी आते-जाते पार्क, मार्केट, बस, ट्रेन या फ्लाइट में मिले हों, परंतु याद नहीं आ रहा है।”
मैनेजर ने मुसकराते हुए कहा, “लेकिन रमेश जी, हम तो पिछले एक-डेढ़ महीने से लगभग रोज ही सुबह-शाम मिलते रहे हैं और हमारे बीच लगातार दुआ-सलाम भी हो रही है। और आप कह रहे हैं कि हम परिचित नहीं।”
रमेश जी ने बहुत ही संयत भाव से कहा, “ओह ! तो ये बात है। दरअसल बात ये है सर कि मेरी रोज सुबह मॉर्निंग वॉक करने की आदत है। मैं अक्सर देखता हूँ कि बहुत से सीनियर सिटीजन अकेले-अकेले मॉर्निंग वॉक करते रहते हैं। मैं लगभग सभी सीनियर सिटीजन को ‘गुड मॉर्निंग सर’, ‘गुड इवनिंग सर’ बोल देता हूँ। किसी-किसी को राम-राम, जय श्री कृष्णा भी बोल देता हूँ। सर, मेरा ऑब्जर्वेशन है कि मेरा ऐसा कहने मात्र से ही उनमें से ज्यादातर लोगों के चेहरे खिल जाते हैं। शायद उन्हें लगता है कि चलो कोई तो हमें पहचानता है।”
मैनेजर साहब को रमेश कुमार की बातें इंटरेस्टिंग लगी। उन्होंने जिज्ञासावश पूछा, “चूँकि आप इस शहर में नए हैं। इसलिए आप इनमें से किसी को शायद ही जानते होंगे। ऐसे में यदि कोई पूछता है कि बेटा तुम कौन हो ? किसके बेटे हो ? और मुझे कैसे जानते हो ? तो क्या जवाब देते हो ?
रमेश जी ने बताया, “सर, सामान्य रूप से शहरों में ज्यादातर लोग व्यापारी, नौकरीपेशा या सेवानिवृत्त होते हैं। उन्हें लगता है कि मैं कभी किसी काम से उनके पास आया रहूँगा, जिससे उन्हें जानता होऊँगा। कुछ सीनियर सिटीजन ऐसे होते हैं जो व्यापारी या नौकरीपेशा लोगों के पैरेंट्स होते हैं। ऐसे लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं, कि ‘बेटा तुम किसके बेटे हो और मुझे कैसे जानते हो ?’ तो मैं उन्हें कहता हूँ कि अंकल जी, मैं रामलाल जी का बेटा हूँ। आप उन्हें नहीं जानते होंगे। जयपुर में रहते थे। अब वे नहीं रहे। आपकी सकल-सूरत और पर्सनैलिटी बिलकुल मेरे पिताजी की तरह है। आपको देखकर मुझे पिताजी की याद आ जाती है। ऐसे ही किसी-किसी को कह देता हूँ कि आपकी पर्सनैलिटी मेरे चाचाजी से मिलती है। सच कहूँ सर, ऐसा सुनकर उन लोगों को जो सुकून मिलता है, वह अवर्णनीय है। मेरी एक झूठी कहानी से यदि किसी सीनियर सिटीजन को थोड़ी-सी भी खुशी मिलती है, तो इसमें क्या बुरा है ?”
मैनेजर साहब ने मुस्कुराते हुए कहा, “कोई बुराई नहीं है बेटा। बहुत ही उच्च विचार हैं आपके। ईश्वर आपको खुश रखें और आप लोगों में यूँ ही खुशियाँ बाँटते रहें।”
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़