दीप
दीप
और, मैंने कई दीप उठा लिए
एक साथ – असंख्य
अनगिनत
दीप हर घर के लिए
हर आंगन के लिए
हर पीपल के तले
हर राह पर
हर चौराहे पर
हर चौखट के लिए
हर मुंडेर पर
इतने दीप
कि अंधेरा मूह छिपा ले
दूर कहीं
बहुत दूर
जहां उजाला ही उजाला हो
कोई दुख न हो.
दर्द न हो
न मन की वेदना
न तन की व्यथा
न भावनाओं का उद्वेलन
न विचारों का उहापोह
बस दीप ही जलें
हजारों
लाखों
प्यार के
अनुराग के
मनुहार के
संवेदना के
सद्भावना
सौहार्द्र के
दीप ही दीप जलें
ज्ञान के
आलोक के
सूरज की हर रश्मि
दीपों को नवजीवन दे
दीप के उजालों को
नवप्राण दे।
डॉ. करुणा भल्ला