दीपक सरल के मुक्तक
दीपक सरल के मुक्तक
किसी के अंतर्मन की वो आग बुझाने निकला है।
जुगनू से आगे जाकर दीप जलाने निकला है।
गूंगों की बस्ती में ज्वाला भड़क रही है, बढ़ने दो-
आ सरकार में , आवाज दबाने निकला है।।
बदन खुशबुओं से महकाना छोड़ दे।
किसी की मदहोशी में जाना छोड़ दे।
अपने किरदार से जीत ले शख्स कोई –
इससे पहले की कोई आना छोड़ दे।।
कड़ी धूप में मुसाफिर को छांव की जरूरत होती है।
मंजिल को पाने के लिए राह की जरूरत होती है
शहरों में हमने संस्कारों के बीज पनपते नहीं देखे-
बच्चे जब मर्यादा लांघें तो गांव की जरूरत होती है।।
हर एक ईट से उम्मीद लगाई जाती है।
तब जाकर के दीवार सजाई जाती है।
सफलता इतनी आसान नहीं यारो –
संभलने से पहले ठोकर खाई जाती है।।
मेरे हौसलों को देखेकर गैरत ही करेंगे लोग।
मेहनत छोड़ देंगे या मेहनत ही करेंगे लोग ।
मैं इस कदर खुद को लाया हू किनारे तक-
मेरी खामोशी को खामोशी से सुनेंगे लोग।।
सुकून में जिंदगी हो मगर जिंदगी में सुकून कहां।
जिसमें प्रचंड उबाल हो रगों में ऐसा खून कहां।
भारत मां की परमभूमि की ये तस्वीर बदल डालें-
तूफानों से जा टकरायें दिलों में ऐसा जुनून कहां।।
तारीफ किसकी करूं किसको बुरा कह दूं।
किसको थाम लूं मैं किसको हवा कह दूं।
किस तरह परखूं मैं जमाने को आखिर-
किसको दर्द कहूं मैं किसको दवा कह दूं।।
रोशनी में आकर अंधेरा खुद को खो देता है।
ये दिमाग़ जब भी दिल की सुनता है , रो देता है !
खामखा में नहीं पालिए मोहब्बत का बहम दिल में-
किसी को पाने की चाहत में खुद को खो देता है!!
पर्दा हटते ही रोशनी में आ जाए कोई।
सुबह होते ही किरदार में छा जाए कोई।
पीछे बातें लाखों हों मगर नामुमकिन –
नसीब का लिखा हुआ मिटा जाए कोई।।
हर एक शख्स से ना गिला किया जाए
जिंदगी जंग है मुकाबला किया जाए ।
जंग ए मुहब्बत को ना हार जाएं हम –
इससे बेहतर अकेला रहने दिया जाए।।
तूफान सी लहरें मेरे अंदर है बहुत।
आंखों में ख्वाबों के मंजर है बहुत।
भरोसा आसानी से होता ही नहीं यारो –
पीठ पर अपनों के खंजर है बहुत।।
हर एक मंजर से अवसर निकाल लेता है।
मौका लगते ही खंजर निकाल लेता है।
मैं ऐसे शख्स से वाकिफ हूं जो पर्दा गिरते ही-
रात के चंगुल से भी दिन निकाल देता है।।
फूलों की महक से मदहोश जमाना है।
मयस्सर शहर है लेकिन न कोई साना है।
गम है खुशियां है आंसू हैं दर्द है लेकिन..
हर एक को यहीं से गुजर के जाना है!
उसके किरदार की खुशबू की महक ज्यादा है।
कुछ ऐसा ही अब करने का इरादा है………..!
यह सोचकर गलियों में निकलते ही नहीं……..
सांस हैं कम मगर चाह बहुत ज्यादा है!!
हारे हुए परिंदे को अब सजर याद आता है
घर से निकलो दूर तो तब घर याद आता है।
जमाने को बदलने की फिराक में हूं क्योंकि-
मजबूरियों मै भी उठा हुआ सर याद आता है ।।
-दीपक सरल