दिव्यांग की देवांगना
रानीखेत पूर्व – पश्चिम की दिशा की लंबाई में बसा एक बड़े से पहाड़ पर बसा एक सुरम्य पर्वतीय क्षेत्र है जिसे queen of the hills भी कहते हैं । इसकी उत्तर दिशा में 480 किलोमीटर लंबी हिमालय की बर्फीली चोटियों की पर्वत माला का वो विहंगम दृश्य है जो संसार के अन्य किसी भी केंद्र से दिखना सम्भव नहीं है , जिनमें हाथी पर्वत , त्रिशूल पर्वत , नंदा देवी आदि के पर्वत शिखर प्रमुख रूप से द्रष्टिगोचर होते हैं ।
अल्मोड़ा जिले से अधिक साधनसंपन्न होते हुए भी कभी इस छावनी क्षेत्र को सुरक्षा की दृष्टि से जिले का दर्जा नहीं दिया गया नहीं दिया जा स्का ।
वहां जिस घर में मैं रहता था उसकी खिड़कियां उत्तर दिशा की ओर खुलती थीं , सुबह सवेरे सूर्योदय के समय सूरज की स्वर्णिम किरणें खुले आसमान से चीड़ और देवदार के पेड़ों और बादलों से छनती हुई एक विशाल हसीन वादी ( घिंघारी खाल ) में गिर कर
उसे प्रकाशित करती थीं । शाम ढले सूर्यास्त के समय फिर वे स्वर्णिम रश्मियाँ उस घाटी में रुई के फाहों की तरह भरे बादलों को सतरंगी बनाते हुए उनपर से उठ कर रात्रि का आव्हान करती थीं जिसके अंधेरे में दूर दूर तक पहाड़ियों पर फैली टिमटिमाती रोशनियों , ऊपर विस्तृत गगन पर टिमटिमाते तारों , कहीं कहीं छिटके बादलों और उन सब पर गिरती चाँदनी के सम्मोहन में बद्ध मुझे मेरा घर उनके बीच में तैरता हुआ सा लगता था।
घर की खिड़की से मेरी दृष्टि की दूरी पर स्थित एक पहाड़ी ढलान रानीखेत बाज़ार से नीचे गहरी खाई की ओर जाती थी । मैं अक्सर अपने कमरे की खिड़की से देखता था कि सुबह-सुबह उस चढ़ाई वाले रास्ते पर एक महिला संभवत अपने पति को अपनी पीठ पर लादकर रोज उस रास्ते से ऊपर चढ़ती हुई दिखाई देती थी तथा दिन ढले पुनः उसी प्रकार उस पुरुष को अपनी पीठ पर लादकर उस ढलान से उतरती हुई घाटी की ओर उतरती दिखाई देती थी । उसे आते जाते देखते हुए मुझे ऐसा लगता था जैसे प्रभु ईसा मसीह अपनी सलीब ढो रहे हों । मुझे वहां के स्थानीय पर्वत निवासियों के द्वारा मिली जानकारी के अनुसार उसका पति दिव्यांग था जिसकी दोनो टांगे किसी दुर्घटना में कट चुकी थीं और वह इतनी पहाड़ की चढ़ाई उतराई करने में सक्षम नहीं था । वह रानीखेत के बाजार में एक कोने में बैठ कर दिन भर छाते बनाने और उन्हें सुधारने का कार्य करता था । कुमाऊं क्षेत्र में छाते का बहुत महत्व है और यह वहां की वेशभूषा का एक अभिन्न अंग है ।वहां विवाह के अवसर पर भी दूल्हा कृपाण की जगह छाता लेकर दुल्हन की विदाई कराता है तथा वहां स्थानीय परिधान का छाता एक अभिन्न अंग है । वहां की स्थानीय बारिशें नितांत अनिश्चितता से भरी होती हैं कभी भी हिमालय पर्वत से उड़ते बादल घुमड़ कर कर वर्षा कर देते हैं ,अतः लोग घर से निकलते समय बादल हों या या ना हों छाता लेकर ही निकलते हैं । मैं समझ सकता था कि उस व्यक्ति के पास काम धंधे की कोई कमी नहीं होगी । वैसे भी मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा कुमाऊं में गरीबी , भुखमरी और अपराध न के बराबर थे लोग ईमानदार और उनकी औसत आयू लगभग 5 वर्ष अधिक पाई जाती थी ।
अक्सर मैं सोचा करता था की इतनी सुरम्य प्रकृति की गोद में इतना सब कुछ होने के पश्चात भी वह महिला रोज सुबह शाम अपने दिव्यांग पति को अपनी पीठ पर उठा कर हर रोज़ सुबह उस चढ़ाई पर चढ़ती और शाम को उतरती थी मानो अपनी जिंदगी की सलीब ढोती थी । मेरी नज़रों में वह सही अर्थों में उस दिव्यांग की देवांगना थी ।
वहां रहकर मैंने यह भी देखा की वहां की स्त्रियां बहुत ही मेहनती होती हैं वे चीड़ और देवदार के पेड़ों की ऊंचाइयों पर चढ़कर उनकी सूखी टहनियों को अपनी अपने हंसिए से काटकर के नीचे गिरा और उनका गट्ठर बनाकर बनाकर शाम को अपने घर ले आती थीं ।
इस कार्य में वे सुबह-सुबह जब वे टोलियों में स्वरूप किसी पहाड़ी पगडंडी पर सुबह चढ़ती और शाम को उन लकड़ियों या घास के गट्ठरों को अपने सिर पर लाद कर पंक्तिबद्ध उतरती थीं तो उन्हें जाते और आते देखकर राज कपूर की फिल्मों के दृश्य ताज़ा हो जाते थे ।
प्रकृति की गोद में विषम परिस्थितियों में जीवन यापन करने वाले उस देवभूमि के निवासी पुरुष देवांग एवम व स्त्रियां सुप्रसिद्ध लेखिका शिवानी जी के लेखन में उनके वर्णन को चरितार्थ करती देवांगनाएँ समान हैं ।