“दिल में बसता बचपन का बस्ता” :)
एक लाइन वाली,चार लाइन वाली और डब्बे वाली, तीन तरह कॉपियां होती थी तब बैग में न.. न.. “बस्ते” में अख़बार के कवर से सजी हुई :)
और वही तीन किताबें जिनमे से एक दो तो घर भूल जाना जरुरी होता था :D क्योंकि मैडम बोल देती थी”चलो तुम दोनों एक में से पढ़ लो” :D
उन्ही कॉपियों में से सबसे बीच का पेज मोड़ के “grammer” और “व्याकरण” की कॉपी बनवा लेती थी मैडम और गणित तो बाप रे एक ही सौ मन भारी थी (हमारे मन पे :p)
एक छोटा सा “जॉमैट्रि बॉक्स” जो दोनों तरफ चोंच निकाले पेंसिल और उसके छिलको से भर होता था वो क्या है न की पेंसिल की छिलकों को पूरी रात दूध में भिगोने से “रबर” बन जाता था (हमारे बचपन की सब बड़ी अफवाह) :D
टिफ़िन तो हमारे बस्ते में होता नहीं था वो क्या है न माँ तपती धुप में तपता हुआ उसे अपने पल्लू से पकड़ के जो लाती थी “आधी छुट्टी” में…:) वो तरी की सब्जी का रिसता स्टील का टिफ़िन खुलने से पहले ही माँ की रसोई की पूरी कहानी कह जाता था… :/
कुछ रहीस भी होते थे नमकीन बिस्कुट और कभी दो ब्रेड के प्लास्टिक के टिफ़िन वाले…पता नहीं माँ हमें काहे नहीं भेजती थी ये सब :/
पानी की बोतल??? अरे “पानी की टंकी” थी न जिसके बहाने “मैडम पानी पी आयें” कह कर सुकून के दो पल बिता आते थे :D
जो भी है बहुत ही प्यारा होता था हमारा “बस्ता”… स्पाइडर मैन,छोटा भीम और बार्बी के कार्टून तो नहीं छपे होते थे उन पर लेकिन हां वो दबा के खोलने वाले बटन एक बहुत अहम हिस्सा थे उसका…. :)
टिक-टॉक,टिक-टॉक करता है आज भी वो बस्ता हमारे दिल में बसता है :)
“इंदु रिंकी वर्मा” ©