दिल्लगी- कोमल काव्या की गजल
दिल्लगी- कोमल काव्या की गजल
तुम्हें दिल्लगी है आती, नहीं दिल लगाना आया
जिसे अपना कर चुके थे, वही हो गया पराया ।
ये दिलों के खेल दिल को महंगे पड़ें बहुत हैं
था लगाया दाओं जिस पर उसी ने हमे हराया ।
ये हैं इश्क के फ़रिश्ते इन्हे फलसफेन हैं आते
हर किसी को थोड़ा थोड़ा स ख्वाब है दिखाया ।
इन्हे बेवफा कहूँ तो तौहीन इनकी होगी
जब चाहा दिल मे रखा जब चाहा तब भुलाया ।
कुछ पंछी उद गायें हैं कुछ घर नहीं है लौटे
जब से सेयाद अपने तरकश के तीर लाया ।
मेरी आँख मे है देखो सागर उफन रहा है
बच न सकोगे फिर तुम जो एक भी बहाया ।
रातों की नींद मेरी कुछ दिन से लापता है
सुनती हूँ इस शहर मे एक जलजला है आया ।
अब जा के दिल ये समझा क्यूँ अपने थे परेशान
हैं जो नफ़रतों के काबिल उसे था खुदा बनाया ।
मा बाप की दुआएं हैं अपने साथ कोमल
उम्मीद के सहारे फिर आशियाँ सजाया ।
थी भरोसे जिसके बाजी उसी ने हमे हराया