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5 May 2024 · 1 min read

दिये आँखो कें जलाये बैठी हूँ …

युँ टूटा है निंद का भरम,

की फिर से आँख लग ना पाई,

गुजरते रहे फिर वो दिलकी गलियों से ,

मै दिये आँखो के जलाये बैठी …

साँसो की गती कभी चढती उतरती,

होले से नापी दिल की गहराई,

न जाने कौंसा खयाल था अजनबी,

जिसके आच सें पलके भिगोई …

आधी रात में धुंदलासा आसमान ,

क्या पता चांदणी कहाँ टिमटिमाई ,

पुनम की बेला है या अवसकी रात,

खालीपन से पलके डबडबाई …

तु मत सोच दोष तेरा है कही,

तु जा अपने रास्ते तेरा जिक्र नही,

ये तो मै खुद से लढ पडी हूँ ,

कहाँ है वो देती थी ना खुदा गवाही …

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