दिये आँखो कें जलाये बैठी हूँ …
युँ टूटा है निंद का भरम,
की फिर से आँख लग ना पाई,
गुजरते रहे फिर वो दिलकी गलियों से ,
मै दिये आँखो के जलाये बैठी …
साँसो की गती कभी चढती उतरती,
होले से नापी दिल की गहराई,
न जाने कौंसा खयाल था अजनबी,
जिसके आच सें पलके भिगोई …
आधी रात में धुंदलासा आसमान ,
क्या पता चांदणी कहाँ टिमटिमाई ,
पुनम की बेला है या अवसकी रात,
खालीपन से पलके डबडबाई …
तु मत सोच दोष तेरा है कही,
तु जा अपने रास्ते तेरा जिक्र नही,
ये तो मै खुद से लढ पडी हूँ ,
कहाँ है वो देती थी ना खुदा गवाही …