*** दास्तां-ए-मुहब्बत ***
दास्तां-ए-मुहब्बत सुनाना चाहता हूं
गा गीत तुझको रिझाना चाहता हूं ।।
सफ़र जिंदगी का भुलाना चाहता हूं
आज तुझसे रिश्ता निभाना चाहता हूं।।
लगी दिल को ठोकर दिखाना चाहता हूं
मैं आज अपने ग़म को भुलाना चाहता हूं।।
जमाना है ज़ालिम बताना चाहता हूं
दिल के ज़ख्मो को दिखाना चाहता हूं।।
अगर हो रजामन्द दिखाना चाहता हूं
जमाने को अब जलाना चाहता हूं।।
खुशियां अपनी पचाना चाहता हूं
हक़ तुम्हारा दिलाना चाहता हूं।।
तुझे अपना दिल से बनाना चाहता हूँ
विष दुश्मन जमाने को पिलाना चाहता हूं।।
ग़म एक एक कर सब गिनाना चाहता हूं
नींद अब जमाने की उड़ाना चाहता हूं।।
लगी दिल पे कालिख़ धुलाना चाहता हूं
ग़म-ए-दिल की चादर सुखाना चाहता हूं।।
है एक ख़्वाहिश तुझे पाना चाहता हूं
ग़म-ए-जमाने को छोड़ जाना चाहता हूं।।
?मधुप बैरागी