दायरे से बाहर
मौत भी मय्यसर है उस को जो ज़िंदा है
ज़िंदगी के लिए जद्दो-जहद भी धंधा है ।
ज़िस्म को तो जकड़ रक्खा है ज़रूरतों ने
मन भटक रहा यूँ जैसे आज़ाद परींदा है ।
आज के दौर में न कर कारोबार-ए-ईश्क़
आशिक़ी का बाज़ार तो आजकल मंदा है ।
कुछ इस कदर फ़िदा हैं मुझ पर मुसीबतें
सहूलियत अपने आप से बेहद शर्मिन्दा है ।
कोशिशें हैं कामयाबियों की जी हुजूरी में
मायूसी चेहरे पर नतीजों का नुमाइंदा है ।
पूछतें हैं लोग अक़सर औक़ात अजय की
कह दो वक्त के हाथों पीटा गया कारिंदा है।
-अजय प्रसाद