“दामाद बने बेटे”
सांवली सलोनी-सी गौरी कुछ अपने ही विचारों में खोई हुई थी कि अचानक ही उसके ऑफीस से सहायक अधिकारी का फोन आता है! अरे मैड़म थोड़ी देर के लिए आपको ऑफीस आना पड़ेगा। एक बहुत ज़रूरी कार्य होने के कारण उपायुक्त महोदय द्वारा उस कार्य को पूर्ण करने के लिये आप ही को बुलाया जा रहा है! स्वयं को संभालते हुए गौरी बोली आती हूँ महोदय! पर उसकी समस्या यह थी कि अकेले पिताजी को ऐसी अवस्था में छोड़कर कैसे जाएं? फिर कुछ मन ही मन सोचते हुए मॉं अकेली संभाल पाएंगी बेचारी? पर कभी न कभी तो मॉं को पिताजी की देखभाल करनी ही पड़ेगी न? फिर उसने स्वयं को थोड़ा संभालते हुए ऑफीस जाने की ठानी।
जैसे ही वह बस स्टॉप पर पहॅुंचती है! उसकी मुलाकात संदीप भैया से होती है… वही संदीप भैया जो पुराने पड़ोसी हैं। लेकिन सगे भैया से बढ़कर ही रिश्ता निभाया है। यहॉं तक कि सभी सगा बेटा ही समझते हैं। गौरी भैया को अपनी समस्या बताती है और कहती है कि जब तक वह वापिस नहीं आ जाती। वे थोड़ा मॉं-बाबा का ध्यान रखें क्योंकि मॉं अभी घर पर अकेली है न बेचारी।
अब तो गौरी बेफिक्र होकर बस में बैठती है और दिमाग में तो यही ख्याल गोते खाते रहता है कि किसी तरह ऑफीस का काम निपटाऊँ और शीघ्र ही वापिस आऊँ। फिर भी पति सहायक हैं इसलिए दोनों बच्चों का स्कूल। सास-ससुर की देखभाल। स्वयं की नौकरी के साथ ही पूरे घर का प्रबंध कर रहें हैं। ये क्या कम हैं? आजकल तो बेटे भी अपने माता-पिता कि सेवा करने से कतराते हैं! फिर ये तो दामाद ठहरे! लेकिन ठीक है न! मॉं कहती है हमेशा! …उतना ही उपकार समझ तू! जितना साथ निभाए. इन्हीं सब सकारात्मक विचारों के साथ वह सदैव हिम्मत के साथ ही आगे कदम बढ़ाती है।
फिर ऑफीस पहॅुंचते ही उसे पता चलता है कि लोकसभा से कोई प्रश्न आया हुआ है और उसका उसी दिन जवाब देना अतिआवश्यक है। अब वह उसी प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ने में लगी रहती है कि एकदम से उपायुक्त महोदय ने उसके पास आकर पूछा? बेटी! कैसे हैं अब पिताजी? पूर्व की अपेक्षा कुछ हालत में सुधार हुआ या नहीं? थोड़ा सुदबुदाते हुए गौरी बोली! नहीं महोदय हम बहनें कोशिश तो बहुत कर रहें हैं! घर पर ही गिरने की वजह से पैर की हड्डी क्रेक होकर ओवर-लैप हो गई थी और चिकित्सकों की सलाह के अनुसार सर्जरी कराना बहुत ही ज़रूरी था। हल्की-फुल्की कसरत करा रहें हैं। जिससे कि रक्तप्रवाह बना रहे शरीर में! पर वे अंतर्मन से नहीं कर रहें हैं! इसलिये अभी स्थिति में कोई खास इज़ाफा नहीं हुआ। प्रयास जारी है। अभी मॉं के साथ सब मिलकर देखभाल कर रहें हैं! मॉं अकेली है! उन्हें सहयोग करना भी बनता ही है न? एक ही शहर में रहकर!
इतना सुनने के बाद उपायुक्त महोदय ने कहा! नहीं बेटी बुजुर्गों की सेवा तो करनी ही चाहिये! इनसे जो आशीर्वाद मिलता है न बेटी! वह खाली कभी नहीं जाता। जबकि मैं हैरान हॅूं यह देखकर कि आप ऑफीस के साथ-साथ माता-पिता की देखभाल और ससुराल के सब कार्यों में कैसे प्रबंध बिठाती हो? इतने में गौरी ने लोकसभा के प्रश्न का ड्राफ्ट बनाकर दिखाया! यह आप देख लिजिएगा महोदय! यदि सहमति हो तो मैं मूर्तरूप देकर अपने घर की ओर प्रस्थान करूँ। क्यों कि मॉं इंतजार कर रही है।अरे हॉं बेटी! बिल्कुल ठीक है! इस जवाब को मेल के माध्यम से भेजकर घर जा सकती हो! उपायुक्त महोदय ने कहा! पर जाने से पूर्व मेरे प्रश्न का उत्तर तो देती जाओ! जी! हौसला बहुत रखना पड़ता है महोदय! और साथ ही रखना होता है धैर्य! इसके अलावा मुझे सहयोग करने में अहं भूमिका अदा करते हैं! मेरे पति।
फिर जैसे-तैसे बस में बैठकर वह घर पहुँचती है! पहुँचते ही पता चलता है कि सीमा आई हुई है! ऑफीस से समय निकालकर और अशोक जिजाजी भी आएँ हैं साथ में। मॉं खाना खाने के लिए गौरी का इंतजार कर रही थी। मॉं बोली! अच्छा हुआ गौरी! तेरे जाने के बाद संदीप आ गया था! थोड़ा पकड़ना था। तेरे पिताजी को! तो सहायता हो गई । वह भी कितनी सहायता करेगा? आखिर परिवार भी तो देखना है न उसे? गौरी ने कहा। हॉं मॉं सबके सहयोग से हम पिताजी की देखभाल कर पा रहें हैं और तुम देखना पिताजी शीघ्र ही चलने लगेंगे और नातियों को बगिचे में घुमने भी ले जाएंगे।
थोड़ी ही देर में गौरी के पति प्रकाश का आगमन होता है। वे कहीं प्राईवेट हॉस्पिटल में पिताजी के त्वरित उपचार हेतु पूछताछ करके आए थे! सिर्फ़ सबकी सहमति की देरी थी। प्रकाश ने बताया कि कुछ दिनों के लिए पिताजी को हॉस्पिटल में भर्ती रखना पड़ेगा। वहॉं जानेमाने फिजियोथेरेपिस्ट द्वारा कुछ उपचार वहीं रहकर कराए जाएंगे क्यों कि रोजाना जाना-आना उन्हें कराना मुमकिन भी नहीं है और रहा सवाल वहॉं उनके पास रूकने का! तो मॉं के साथ बारी-बारी से मैं और अशोक रूक जाएंगे! साथ ही तुम बहनें ऑफीस भी जा सकती हो।
सबकी रजामंदी से पिताजी को भर्ती कराया जाता है और शीघ्र ही उपचार भी प्रारंभ हो जाता है! साथ ही बारी-बारी से सबकी सेवाऍं भी बंट जाती हैं। सभी कुछ आसानी से प्रबंधन हो जाता है! बस यही इंतजार रहता है सबको कि किसी तरह पिताजी चलने लगें तो मॉं की थोड़ी तकलीफ कम हो जाएगी।
एक दिन हॉस्पिटल में मॉं बैठे-बैठे विचारों में खोई रहती है! कौन कहता है कि दामाद बेटे नहीं बन सकते! इस संसार में चाहो तो सब कुछ हो सकता है और यह तो बहुत अच्छा हो गया जो प्रकाश ने इन्हें यहॉं भर्ती कराया! कम से कम वाकर से तो चलने लगे। वाकई दोनों बेटियों ने अपनी-अपनी ससुराल में सबका मन मोह लिया है! “नतीजतन दामाद भी बखूबी बेटों की ही तरह निर्वाह कर रहें हैं “। एकाएकी मॉं को दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनाई देती है! फिर थोड़ा होश संभालते हुए देखती है तो दो स्टाफ-नर्स पिताजी को वाकर से चलाने का अभ्यास कराने के लिए आतीं हैं। आप बैठे रहिए मॉं जी! हम ले जाएंगी इन्हें! आप बिल्कुल भी परेशान न हों।
इतने में गौरी के आफॅीस से उपायुक्त महोदय पिताजी का स्वास्थ्य देखने आतें हैं और मॉं से हाल-चाल पूछते हैं। मॉं कहती है उनसे! देर लगेगी उन्हें आने में! आपको यदि जल्दी है तो आप जा सकते हैं। इस पर वे कहते हैं! अरे नहीं बहनजी अब तो पिताजी से मिलकर ही जाएंगे और कमरे के सामने ही बगिचे में कुर्सी पर बैठे हुए करते हैं! मिलने का इंतजार।” कहते हैं इंतजार का फल मीठा होता है! सो हुआ”! उपायुक्त के साथ-साथ मॉं का भी। मॉं तो यह दृश्य देखकर फूली नहीं समा रही! और चक्षु से छलक पड़े खुशी के ऑंसु। देखा तो पिताजी बिना किसी की सहायता से स्वयं वाकर से चलकर आ रहे और साथ में दोनों दामाद और बेटियाँ भी हैं।
सभी आनंदित हैं कि चलों आखिरकार सबकी मेहनत रंग लाई! और उपायुक्त महोदय ने माता-पिता से कहा! आप दोनों भाग्यशाली हैं। “जो आपको सुसंस्कृत बेटियों के साथ दामाद भी संस्कारवान ही मिले”। सुनकर मॉं बोली श्रीमान जी! दामाद नहीं बेटे।
जी हॉं पाठकों वर्तमान युग में हम चाहें तो क्यों नहीं हो सकता? यदि माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को बचपन से ही ऐसे सकारात्मक संस्कार दिए जाएँ तो दामाद भी बेटे की भूमिका अवश्य ही निभा सकते हैं।
आरती आयाचित
स्वरचित एवं मौलिक
भोपाल