दानवीरता की मिशाल : नगरमाता बिन्नीबाई सोनकर
दानवीरता की मिशाल : नगरमाता बिन्नीबाई सोनकर
आज के भौतिकवादी युग में जहाँ लोग लोभ, इर्ष्या द्वेष एवं भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं। उन्हें दूसरों के बारे में सोचने तक के लिए समय नहीं है, वहीं बिन्नीबाई सोनकर जैसी दिलेर महिला हैं जो स्वयं अनपढ़ होकर भी समाज सेवा का ऐसा साहसिक कार्य कर हमारे समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किए हैं जो बड़े-बड़े उद्योगपति भी नहीं कर सकते। एक अरबों का मालिक उद्योगपति यदि कुछ लाख रुपए समाज सेवा में लगाए तो वह उतना बड़ा आदर्ष नहीं बनता जितना कि एक सब्जी बेचने वाली महिला अनपढ़, दिनभर कड़ी धूप, बरसात या कड़कड़ाती ठंड में हाथों में तराजू और सिर पर सब्जी की टोकरी उठाए संघर्षपूर्ण जीवन के बीच अपने जीवनभर की कमाई राज्य के सबसे बड़े अस्पताल को धर्मशाला बनाने के लिए दान कर देती है।
नगरमाता के नाम से विख्यात बिन्नीबाई सोनकर का जन्म वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर के सोनकरपारा, पुरानी बस्ती मे एक साधारण किसान परिवार में सन् 1927 ई. में हुआ था। इनके पिताजी का नाम घुटरु सोनकर तथा माताजी का नाम रामबाई था। माता-पिता की इकलौती संतान होने से उनका पालन-पोषण बहुत लाड़-प्यार से हुआ।
बिन्नीबाई के घर के आस-पास कोई विद्यालय नहीं होने तथा तत्कालीन समाज में स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभाव होने से उनकी पढ़ाई-लिखाई के विषय में किसी ने भी कोई विचार नहीं किया बल्कि उन्हें घरेलू कामकाज तथा खेती-किसानी के काम जैसे निंदाई- गुड़़ाई, बाग से सब्जी तोड़ना, उसे सब्जी बाजार में ले जाकर बेचना आदि काम सिखाया गया। पढ़ने-लिखने की उम्र में वह घर के कामकाज पूरा करने के बाद रामकुण्ड (वर्तमान समता काॅलोनी, जो उनके घर से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।) अपने माँ-पिताजी के लिए खाना पहुँचाने जाती थी।
बिन्नीबाई सोनकर की षादी भाठागाँव के आँधू सोनकर से हुई। विवाह के दो साल बाद उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने फागन रखा। कालांतर में आँधू सोनकर कुसंगति में पड़ गए। जुआ, शराब और समझाइस देने पर पत्नी से मारपीट करना उनके लिए आम बात हो गई। परिवार की इज्जत और बेटी के भविष्य की खातिर बिन्नीबाई ये सब चुपचाप सहती रहीं। इस बीच उनकी बेटी फागन भी विवाह योग्य हो गई तो बिन्नीबाई ने अपने माता-पिता के सहयोग से रामकुण्ड निवासी बसंत सोनकर से उसका विवाह कर दिया।
बेटी की विदाई के बाद बिन्नीबाई सोनकर का गृहस्थ जीवन कष्टप्रद हो गया। पति की प्रताड़नाओं से तंग आकर उन्होंने उनका घर छोड़ दिया। बाद में सोनकर समाज के माध्यम से उनमें तलाक हो गया। अब वे अपने माता-पिता के साथ रहने लगीं और उनके खेतीबाड़ी के कारोबार में सहयोग देने लगी। वे प्रतिदिन रामकुण्ड स्थित सब्जी बाड़ी जातीं, स्वयं कुएँ से पानी निकालकर सिंचाई करती। सब्जी तोड़कर सिर पर टोकरी रखकर जवाहर सब्जी बाजार पिताजी के पसरा (सब्जी दुकान) में जाती और रात के आठ-नौ बजे तक सब्जी बेचकर घर लौटतीं।
बिन्नीबाई सोनकर अपने वृद्ध माता-पिता की खूब सेवा करती थीं। कालांतर में क्रमश: उसके वृद्ध माता-पिता का भी निधन हो गया। अब बिन्नीबाई पूरी तरह से अकेली पड़ गई क्योंकि विवाह के बाद उनकी बेटी फागन भी अपने परिवार में ही रम गई थी। उसने अपने माता-पिता से कोई संबंध नहीं रखा।
माता-पिता की मत्यु के बाद बिन्नीबाई का जीवन यंत्रवत हो गया। सुबह से शाम तक सिर्फ काम। उन्होंने अपने जीवन में बहुत से उतार-चढ़ाव देखे। उनके मन में ये भाव जागा, ‘‘आखिर ये सब किसलिए ? किसके लिए कर रही हूँ मैं इतना काम ? मेरे बाद तो सभी रिश्तेदार पैसों के लिए आपस में लड़ाई-झगड़ा ही करेंगे। इससे तो अच्छा है कि कुछ ऐसा कर जाऊँ जिससे कि गरीबों की मदद हो और उनके लिए सहारा बन सकूँ।’’ उन्होंने अपने जीवन को सार्वजनिक बनाकर अपना सब कुछ, जमा पूँजी जनकल्याण के कार्यों में लगा देने का निश्चय किया।
सर्वप्रथम बिन्नीबाई ने रायपुर के लोहार चौक, पुरानी बस्ती में एक शिवमंदिर का निर्माण करवाया। पढ़ाई न कर पाने का दर्द वह जानती थीं। इसलिए सन् 1987-88 ई. में उन्होंने कुशालपुर रिंगरोड की अपनी जमीन को बेचकर मिले पैसे से रामकुण्ड में जमीन खरीदकर एक प्रायमरी स्कूल खुलवाया। यह स्कूल आजकल बिन्नीबाई प्राथमिक स्कूल के नाम से जाना जाता है।
सन् 1993 ई. में रायपुर के पं. जवाहर लाल नेहरु मेमोरियल मेडिकल कॉलेज में अपने इलाज के दौरान बिन्नीबाई सोनकर ने देखा कि दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों से आए मरीजों के परिजन वहाँ बड़ी कठिनाई में रह रहे हैं। उनका खाना-पीना, रहना सब काम खुले आसमान के नीचे बहुत कठिनाई से हो रहा है। उनका हृदय दुःख से भर उठा। उन्होंने अस्पताल परिसर में ही एक विशाल धर्मशाला बनाने का निश्चय किया।
बिन्नीबाई सोनकर के एक परिजन डॉ. अषोक सोनकर, जो उस समय पं. जवाहर लाल नेहरु मेमोरियल मेडिकल कॉलेज, रायपुर में अध्ययनरत थे, के सद्प्रयासों से उन्हें वहाँ पर एक धर्मशाला खोलने की अनुमति अस्पताल प्रशासन से मिल गई। इसके बाद सन् 1993 ई. में बिन्नीबाई ने रायपुर के तात्कालीन कमिश्नर श्री जे. एल. बोस को अपनी जमा पूँजी दस लाख रुपए सौंप दिए।
जुलाई सन् 1994 ई. में तत्कालीन मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री श्री अशोक राव ने भूमिपूजन किया और सन् 1997 ई. में बिन्नीबाई सोनकर धर्मशाला भवन का उद्घाटन अविभाजित मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह जी के कर कमलों से संपन्न हुआ।
श्री दिग्विजय सिंह जी ने बिन्नीबाई सोनकर के इस अनूठे दान की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की और उनके जीवनयापन के लिए एक हजार रुपए प्रतिमाह पेंशन देने की घोषणा की, जिसे बिन्नीबाई ने यह कहकर ठुकरा दी कि ‘‘मँय नून चटनी में बासी खाके जीवन चला लेहूँ लेकिन कोनो किसिम के सरकारी सहायता नई झोंकव।’’
स्न् 1998 ई. में रायपुर नगम निगम द्वारा प्रतीक चिह्न एवं ‘नगरमाता’ की उपाधि देकर उनका सम्मान किया गया। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा समाजसेवा के लिए उन्हें प्रतिष्ठित ‘मिनीमाता’ सम्मान से नवाजा गया।
20 अगस्त सन् 2004 ई. को उनका देहांत हुआ लेकिन करुणा और त्याग का जो पाठ उन्होंने हमें सिखाया है वह हमेेशा याद किया जाएगा।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़