दहेज
विधा-कुकुभ एवं ताटंक छंदाधारित मुक्तक
देख तराजू दुल्हा बैठा, कलप रही बेटी प्यारी।
दे दी घर की दौलत सारी, फिर भी है पलड़ा भारी।
ये दौलत के कितने भूखे, करते हैं सौदाबाजी,
वस्तु समझ खरीदते बेटी, ये कैसी रिश्तेदारी।
कलप रही बेटी प्यारी।
एक पिता के सिर पर आया, ऋण का यह बोझा भारी।
मंगल सूत्र गवा कर अपना, छुप रोती माँ बेचारी।
तने खड़े हैं लड़के वाले, देते ताने पर ताने,
विदा करें बिटिया को कैसे, मात-पिता की लाचारी।
कलप रही बेटी प्यारी।
काँप रहें हैं अवनी अंबर,मोल लगाया है भारी।
ये क्रुर दहेज के दानव ने,छीन लिया खुशियाँ सारी।
बंद नहीं हो पाई अब तक, ये प्रथा गैर कानूनी,
बढ़ रहा है दंश जहरीला, बन गई है महामारी।
कलप रही बेटी प्यारी।
पढ़ाओ लिखाओ बेटी को, लेने दो जिम्मेदारी,
बेटी को तुम कम मत आँको, ये है बेटों पर भारी।
दहेज के खिलाफ मिल जुल कर, आवाज उठानी होगी,
इस कलंक को धो डाले हम, चल दूर करें बीमारी।
कलप रही बेटी प्यारी।
स्वरचित
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली