दहेज दानव
आज उम्र के जिस पड़ाव पर खड़ा हूँ, वहां पहुंचते पहुंचते आदमी अक्सर अकेला हो ही जाता । जो सहारा दे सकता था उसे हटाकर अकेला, जो नहीं दे सकता उसे अरमानों में सजाकर अकेला । कोई छोड़कर निकल गया तो कोई आकर निकल गया । यही तो जिंदगी है । अकेला आना, अकेला जाना, लेकिन जिंदगी भर साथ के लिए तड़फड़ाना ।
वह दिन आज भी याद है । बेटी विदा करते हुए दिल मे बड़ी खुशी थी, संतोष भरी खुशी, कि अब तो मुझे बुरा कोई नहीं कहेगा । यदि बेटा को पढ़ाकर मास्टर बना दिया तो भले ही बेटी को नहीं पढाया, लेकिन एक मास्टर के हाथों में उसका हाथ देकर उसके जीवन को भी सुखमय बना दिया । अपने हैशियत से भी बेसी खर्च कर बड़े घर मे नौकरीशुदा लड़के से उसकी शादी किया था । मेरी बेटी, मेरे तन का एक अंग, मेरा अभिमान आज रोते बिलखते विदा हो रही थी अपने लोगों से, मां के आंचल से, पापा के छाँव से । बाप शायद सम्बन्धों के फेहरिश्तों में सबसे निरीह जीव होता । जो रोने को तो विवश होता किन्तु आंसू ना बहाने की मजबूरी के साथ । अतः जिसके चेहरे के शिकन भी मुझे बर्दास्त से बाहर थे उसके रोना कैसे बर्दास्त होता । जब उसे घर से विदा किया जाने लगा था, वह दृश्य शायद मेरे लिए असह्य था । हृदय में भावनाओं के हिलोरे थे किंतु आंखों से ना निकलने देने की बाध्यता भी थी ।मेरे आंसू शायद उसके जीवन पथ को मलीन कर सकते थी । आखिर यही तो बेटी की परिभाषा भी है कि पैसे देकर जुदाई खरीदी जाती और खुशी लुटाकर आंसू बहाई जाती । उस समय मैं दरवाजे से कुछ समय के लिए हट गया था ।किन्तु थोड़ी देर बाद जब घर आया तो लोग मुझे कोसने लगे थे । “कैसा कठकरेजी बाप है रे तूँ,, बेटी तुझे खोजते बिलखते चली गई लेकिन उसे आशीष भी देने नहीं आया । उसके खुशियों के लिए इतना कुछ करके क्या किया कि सब करके पानी में डाल दिया ।
तरह तरह की बाते करके मुझे जबजस्ती गांव के बाहर वहां भेजा गया जहां गाड़ी खड़ी थी । जहां मेरी बेटी पीछे घूम घूमकर गांव को, गांव के माटी को, गांव के बाग बगीचे को विह्वल सा निहारते तड़पती हुई गुहार लगा रही थी कि कोई तो उसे रोक ले रे । किन्तु आज तो सब बेगाने बने थे, उसे विदा करने पर आमादा । ना नेह की नगरी जहां उसने जन्म पाया था वही रोक रही थी, ना वे दहलीज जिसे बुहारते हुए उसने खुशियों के मीठे गीत गाये थे । ना बरगद के वे बृक्ष रोक रहे थे जिसके शीतल छाँव में उसने सखियों संग रास रचाई थी ना बाग बगीचे ताल तलैया ही रोक रहे थे । आज सब आंसू बहाते उसके विदाई को आमादा थे । गांव से विदाई, घर से विदाई, अधिकार से विदाई, वह घर जो उसके नेह का नगर था, उसका अपना घर जहां मां की मातृत्व थी बाप का साया था वह अब घर नहीं नैहर हो चला था ।
मुझे आता देख मेरी बेटी जबरजस्ती गाड़ी से उतर दौड़कर मुझसे लिपट गई थी । “पापा मुझे क्यों भगा रहे हैं ? मैं आपको छोड़कर नहीं रह सकती पापा । मैं नहीं रहूंगी तो आपको पानी कौन देगा ? आपको चाय कौन देगा ?आपका बिस्तर कौन लगाएगा ? मम्मी जब आपसे झगड़ेंगी तो उन्हें समझाने वाला भी तो अब कोई नहीं होगा पापा” । रोते हुए बेटी ने तरह तरह के भावनात्मक बातों की झड़ी लगा दिया था । उसकी बातें सुन मेरे भी आंखों के समन्दर उमड़ने को बेताब हो उठे थे । बड़ी मसक्कत से उन्हें रोक पाया था । हृदय में उमड़ते बाढ़ को जज्ब किये, अपने गमछे से उसके आंसू पोंछते उसे समझाया था “”मैं सब कर लूँगा रे ! तेरा बाप अभी बूढ़ा नहीं है । तूँ हंसी खुशी जा बेटी, तेरे खुशियों के लिए ही तुझे विदा कर रहा हूँ । आज से तेरा घर वही है, यह घर तो तेरा नैहर हो गया बेटी ! आज से मैं तेरा जैविक बाप हुआ, तेरे असली बाप वही हैं, तेरे ससुर । उनकी सेवा करना तेरा धर्म है बेटी ।,,
समझाते हुए उसे गाड़ी में बैठा दिया था और वह चली गई थी, अपने नए संसार मे, नए लोगों के साथ, नया आशियाना बनाने । घर आया तो जिस नयन को बांधकर छलकने से अबतक रोके रखा था उन्हें आगे नहीं रोक सका और फूट फूट कर खूब रोया था । मेरी बेटी मेरा हिम्मत थी । जब ही ड्यूटी से आता वह दरवाजे पर ही मिलती, मेरे इंतजार में खड़ी । झपटकर मेरे कंधे से बैग उतार लेती । तुरन्त पानी भर लाती, हाथ मुंह धोने के लिए । हाथ मुंह धोकर फ्रेस होता तबतक चाय बना लाती । दिनरात मेरे कपड़ों पर तजबीज करते रहती । थोड़ा भी गन्दा होते ही धो देती । थोड़ा भी फटने पर मां को जबदस्ती लेकर बाजार चली जाती और अपने पसन्द का कपड़ा मेरे लिए ख़रीदवाती । जबसे उसने होश संभाला था तबसे शायद मैं अपने लिए कुछ खरीदा होऊं याद नहीं । मेरी बेटी ने छोटी छोटी जरूरतों के लिए भी मुझे अपना आश्रित बना लिया था ।खुद लेकर मैं पानी भी नहीं पी पाता । उसकी ये यादें मेरे आंसूओं के लिए पर्याप्त थे ।
लगभग एक सप्ताह बाद अपने बेटी से मिलने गया था, उसके ससुराल में । दरवाजे पर ही समधीजी मिल गए दामादजी भी कहीं से आये और दम्भपूर्ण तरीके से सामने कुर्शी पर बैठ गए । कुशलक्षेम हुआ किन्तु उनके बातों में आज वह गरिमा नजर नहीं आई । कुछ रश्मी बातों के बाद समधीजी खुद कहने लगे “जब आपकी हैशियत इंगेज लड़के से शादी की नहीं थी तो क्या गरज थी बड़े घर मे शादी करने की । दस बीस हजार की भी गरजू शादियां मिल जाती हैं । जहां एक टूटी-फूटी साइकिल दे देने से भी गरज निकल जाता । वैसी ही शादी कर दिए रहते, क्या जरूरत थी यहां आकर बेईमानी करने की ?,, उनकी बात सुनते मैं शर्म से धसा जा रहा था । इतना कुछ करने के बाद भी बेईमानी का तोहमद । दिल व्यथित हुआ कम से कम उनके बड़े दिखाने के दम्भ के अपरिभाषित होने के कारण ।
“लेकिन मैंने बेईमानी क्या की है ?,, कहते हुए मेरे भी जुबान कुछ तल्ख हो गए ।
“अरे ,, दस लाख नगद और एक चार पहिया दहेज तय हुआ था । किन्तु आप इतना भी नहीं दे पाए । जबकि मुझे तेरह लाख नगद और स्कार्पियो पहले से ही मिल रहा था । लेकिन आपके मीठे बातों के झांसे में आकर मैंने आपके यहां सौदा तय कर लिया था । लेकिन आप उतना भी नहीं दे पाए । दस में सिर्फ साढ़े नौ लाख और गाड़ी भी स्कार्पियो ना देकर सिर्फ सात लाख की गाड़ी दिए । यह बेईमानी नहीं तो क्या है ?,,
उनकी बात सुनते मैं हक्का-बक्का रह गया ।उनके गुस्से से भरे मुखमण्डल और जुबान की तल्खी देख मुझे आभाष हो गया था कि दहेज को लेकर उनके मुंह सीधा नहीं है । किन्तु बेटी के भविष्य की बात थी । बात होती तो होते होते बिगड़ जाती और हो सके कि इससे बेटी का भविष्य अधर में लटक जाता । हालांकि शादी में उनकी निर्लज्जता भी सीमा लांघ गई थी । समधीजी सिर्फ दो भाई थे जबकि आंगन में हमारे कुल आठ लोग समधी बनकर आये थे । और आठो को अंगूठी से लेकर सारा सरजाम खड़े होकर उन्होंने दिलवाई थी । लेकिन यह खर्च उनके लिए दहेज ना होकर बेटिहा की श्रद्धा थी । फिर भी बात को सम्भालते हुए मैने उनसे अनुनय किया । “जब आप हमारे पूज्य हो गए तो अब तो जिंदगी भर देना ही है । थोड़ा सब्र रखिये आपका पाई पाई चुका दूंगा । बस आशीर्वाद बनाये रखिये ।,,
लेकिन उनके रुखाई में तनिक नरमी ना आई । मेरे बातों को सुनते हुए भी आंखों से शोले बरसाते रहे । और जैसे ही मेरी बात पूरी हुई हिक्कारत से मुझे देखते बोल पड़े । “”बात मत बनाइये । आपके इन मीठी बातों के पीछे के जहर को हमने भुगत लिया है । चुपचाप जाइये बेटी से मुलाकात कीजिये और एक सप्ताह के भीतर हमारे दहेज की रकम पूरा कीजिये ।नहीं तो ?????” यह बात वे इतनी रुखाई से बोले कि मेरा तो माथा झनक गया । मन ही सोचने लगा कि जब मेरे साथ ऐसा व्यवहार तो मेरे बेटी के साथ कैसा होता होगा ? लेकिन यदि उसके साथ कुछ भी गलत हुआ तो फिर ठीक नहीं होगा ।,, गुस्सा और पश्चाताप के तड़प को सीने में दबाये भीतर बेटी के पास चला गया था ।
मुझे देखते ही मेरी बेटी आकर मुझसे लिपट गई थी । “मुझे क्यों त्याग दिए पापा । क्या पूरे घर मे एक मैं ही बोझ थी ? मैं भी आपके साथ चलूंगी पापा । मम्मी की बड़ी याद आती हैं । वे मेरे लिए रोती हैं पापा । मैं भी यहां उनके लिए रोती हूँ पापा ।,, कहते हुए मेरी बेटी जार बेजार रोने लगी । उसका रोना देख मुझे भी रुलाई आई किन्तु एक बाप बेटी के सामने रोने को भी तो आजाद नहीं था । प्रेम से उसके आंसू पोंछा और सलीके से उसे समझाया ।
“अब यही तेरा घर है बेटी !, अब तेरे मम्मी पापा भी बदल गए हैं । तेरे सास ससुर अब तेरे मम्मी पापा हैं । उन्हीं के साथ तुझे अब रहना है बेटी । अब मैं तो तेरा रिश्तेदार हो गया बेटी । अब तो सिर्फ तेरा हालचाल लेने ही आऊंगा ।,, कहते हुए समझाकर उसे चुप कराया । किन्तु एक बेटी कब मानने वाली थी । भावनात्मक सवालों तथा नशीहतो से खुद भी जार बेजार होते रही और मुझे भी किये रही ।
“अब मेरी याद कभी आती है कि नहीं पापा आपको ? जब याद आती तो क्या करते हैं पापा ? रोते हैं क्या ? लेकिन आपको तो रोना भी नहीं आता पापा । विदाई के दिन आप आंखों से नहीं हृदय से रो रहे थे । आप आंसूओं को पी जा रहे थे पापा । मैं आपके हृदय में झांककर देखी थी । ड्यूटी से आकर आप मुझे ही बुलाते थे । लेकिन अब तो मैं नहीं हूँ, अब किसे बुलाते हैं पापा ? आपको कौन चाय देता, कौन पानी देता, कौन भोजन परोसता ? आपको मैं जानती हूँ पापा । आप अपने लिए कभी कुछ नहीं करते । फटा पेंट और शर्ट पहनकर ही चल देते । टूटा चप्पल ही पहनकर चल देते हैं । भले दूसरे के लिए कुछ भी खरीद लाते, किन्तु अपने लिए एक शर्ट भी नहीं खरीदते है आप । मैं थी तो जब फटा देखती तो मम्मी से कहकर ख़रीदवाती थी । अब तो मैं भी नहीं हूँ । अब कौन ख़रीदवायेगा पापा ।,,
उसके इन भावनात्मक बातों ने मुझे भी भावुक कर दिया था और भीतर ही भीतर आंसूओं को पीते हुए तड़पने लगा था । किन्तु हृदय में तो एक दूसरी ही अग्नि जल रही थी पूछने की कि “दहेज के लिए ये लोग तुझे तो कुछ नहीं कहते ?,, दामादजी के रोष और समधीजी के बातों ने मुझे ससंकित कर दिया था कि ये लोग कहीं मेरे बेटी को ही तंग करना शुरू ना कर दें । लेकिन जब उससे पूछा तो उसके आंसू जो सूख गए थे तुरन्त आंखों में तैर आये और उसने सिर नीचे गड़ाए “ना” में सिर हिला दिया । देखकर मन को सकून मिला कि चलो मेरी बेटी को तो वे लोग कुछ नहीं कहते । घर भी गया तो एक निश्चिंतता थी कि चलो कर्जा पताई है तो क्या हुआ भर देंगे । लेकिन मेरी बेटी हंसी खुशी तो है, फिर चलो सब ठीक है ।
घर आकर रोज हम दोनों मियां बीवी बेटी के कहे बातों को यादकर कभी भावुक भी होते तो कभी खुशी के हंसी भी हंसते रहे । कुल मिलाकर मन मे तसल्ली थी कि मेरी बेटी सुखिया घर मे गई है । इन्ही सुखद एहसासों में जीते धीरे धीरे महीनों बीत गए । अब तो फिर उसके यहां जाने की सपराई भी होने लगी थी । दो दिन से उसके रुचि का सामान खरीदा जा रहा था । वह क्या खाती है,, क्या पहनती है ? लेकर जाने की व्यस्था हो रही थी, तबतक सुबह सुबह दामादजी आ धमके । गुस्से से लाल-पीला धमस से धरती हिलाते, जुबान से कयामत ढाते । ना नास्ता ना पानी ना भोजन ना छाजन, आते ही फरमान लगे सुनाने । “चलकर आप अपना सामान लाइये,, हमे आपकी फूटी कौड़ी भी नहीं चाहिए ।,, सुनते ही हमारे होश उड़ गए । बेटी के भविष्य पर अंधेरे का आगाज महसूस कर मैं भीतर से कांप गया । आखिर बात क्या है ? समधीजी दहेज वाले बकाया के लिए नाराज हैं क्या ? मन मे तरह तरह के कुख्याल आने लगे । लाख अनुनय विनय किया लेकिन दामादजी मेरे घर पानी का बून भी ना गिराये । आये फरमान सुनाये और रोष से भरे हुए वापस चले भी गए
बेटी के भविष्य को देखते हुए दूसरे रोज इधर-उधर कर्जा-उआम करके 50 हजार रुपया जुटाया और लिए समधजी के पास पहुंचा । उन्हें रुपया थमाकर हाथ जोड़े विनती किया “अब मैं आपका रिश्तेदार हो गया । मेरे सुख दुख का ख्याल भी आपको रखनी होगी । लेन देन तो जिन्दगी भर होगी । लेकिन लेन देन से बच्चों के प्रेम प्रभावित ना हों ।,, सुनते ही वे चिढ़ गए ।
“क्या बोले ? अभी यह तो नगद वाली रकम पूरी हुई । लेकिन अगर चाहते कि सम्बन्ध सुचारू रहे तो दो तीन दिन में स्कार्पियो भिजवा दीजिये और यह आल्टो ले जाइए ।,, सुनते ही मैं हक्का-बक्का रह गया ।
“लेकिन समधीजी स्कार्पियो की बात तो नहीं हुई थी । चार पहिया की बात हुई थी तो आल्टो आपको दिया ही हूँ । यदि आप पहले बताते कि हमे स्कार्पियो चाहिए तो फिर हम शादी ही नहीं करते ।,,
“ओ हो ! यदि आप ही पहले बताये होते कि हम स्कार्पियो नहीं आल्टो देंगे तो हम ही शादी से मुकर गए रहते । अब शादी हो गई तो क्या मेरा दहेज डूब जाएगा ? नहीं! स्कार्पियो तो आपको देना ही पड़ेगा ।,, उनकी बात सुनते मेरे खून सूख गए कि यदि स्कार्पियो नहीं दूं तो ये लोग कहीं मेरे बेटी के साथ अप्रत्याशित ना कर दें । दुखी मन बेटी के पास गया । उसदिन बेटी के मुंह मे जुबान भी नहीं थे । भयभीत सा सिर झुकाए सिर्फ आंसू बहा रही थी । दरवाजे के ओट में खड़े समधिन और ननद टोह ले रहे थे कि बाप से क्या कह रही है । स्थिति देख मन बड़ी ससंकित हुआ । दामाद का रोष देखकर लगा था कि यह मेरे बेटी संग मार पीट भी करता होगा । लेकिन जब बेटी से पूछा तो वह सिसकियाँ लेने लगी । एक बार पूछा दो बार पूछा किन्तु वह निरुत्तर सा सिर्फ सिसकियाँ लेती रही । बार बार पूछने पर कि क्या ये लोग दहेज के लिए तुझे भी तंग करते ? बस वह “ना” में सिर हिलाकर मौन हो गई ।
बेटी की यह स्थिति देख बड़ी दुख हुआ । मेरी चुलबुली बेटी आज मौन हो गई थी । हमेसा मुस्कुराने वाले होठ आज सूख गए थे । शरारती आंखें आज सिर्फ आंसू बहा रही थी । मेरे बेटी के साथ कुछ ना कुछ ज्यादती जरूर हो रही है । जिसे वह भयवश बता नहीं रही है । यह देखकर मैं भीतर से कांप गया था ।जी मे तो आया कि बेटी को लिए चल दूं । लेकिन फिर विचार कर कि आखिर उसे रहना तो इसी घर मे है । बिन विचारे कोई भी कदम समस्या के खाई को और चौड़ा कर सकते हैं । अतः यह विचार त्यागकर दुख में डूबा अपने करनी पर पश्चाताप करने लगा । थोड़ी देर बाद जब जाने को हुआ तो वह आकर मुझसे लिपट गई और सिसकियों में डूबे हिचकोले आवाज में बस इतना ही बोली कि “पापा, इन्हें स्कार्पियो दे दीजिए ।,, फिर मौन हो गई ।
बेटी के खुशी के लिए तत्काल वह भी किया । लेकिन फिर भी सप्ताह बीतते खबर आ ही गई कि “आपकी बेटी फांसी लगाकर मर गई ।,, फिर भी जिंदा हूँ । लेकिन पछतावा है कि “भाव के आंसू और जख्म के आंसुओं तथा इंसान और शैतान में विभेद करना इन आँखों ने नहीं सीखा । अन्यथा ?????
सत्य प्रकाश शुक्ल बाबा