दस्तक
सुन नहीं पाया दस्तक
ख़ुशी
खटखटाती रही रात भर
मैं प्रपंचों की चादर ताने ,
ओढ़ कर पूरे विश्व को
सुधारता रहा समाज ,काल , परिस्थिति ।
भगाता रहा शांति और धैर्य को ,
सुनता रहा इच्छाओं का
अनंत शोर ।
कब आयी कब चली गयी
बदली नहीं तकदीर ,
सुधरा नहीं मैं
अब सोऊंगा नहीं
दरवाजे खुले रखूँगा ।
और सही एक प्रयास
सतीश पाण्डेय