दर्द भरी साल
======= गीत=======
? दर्द भरी ये साल?
गुजर रहा है, साल पुराना अच्छा है।
आ रहा है, साल नया भई अच्छा है।।
पीछली साल तो यूं ही, गुजरी रोते- रोते।
मौत ने दी दस्तक, खांसते और छींकते।।
घर को ही कैदखाना, बनाया घर में कैद कराके।
दांत,नाक,मुंह सब ढकवाऐ, मौत का डर दिखलाके।।
जो लिपटते थे सीनें से, उनको दूर भगाया।
अपनों से भी मिलने को, इसने खूब तरसाया।।
दाना- पानी मुश्किल हो गये, काम हो गये बंद।
गली-मोहल्लों की नाली में, उड़ने लगी दुर्गंध।।
खट्टे का जिनको भी बताया, परहेज कभी था भारी।
वो भी खट्टा खाकर बन गये, खट्टे के आभारी।।
दहशत इतनी भारी हो गई, जिसको कहना मुश्किल।
गाड़ी- मोटर वाले भी, चलाने लगे साईकिल।।
वीराने सी गालीयां हो गई, सूने घर के चौक।
कोरोना ऐसा चिल्लाया, रोक सके तो रोक।।
आना- जाना बंद हो गया, सुख-दु:ख के होने पै।
घरों में जैसे जंग मंच गई, पास- पास सोने पै।।
अपनों से अपने भी जी भर, दूर है भागे।
कुछ तो हमसे ऐसे भागे, लौटे नहीं अभागे।।
घर जाने की मजबूरी ने, पैदल खूब घसीटा।
वुरे वक्त पर लाचारी ने, जी भर सबको पीटा।।
भूख- प्यास और साधन की, कमी पड़ गई भारी।
जाने कितनी जानों पर, चल गई मौत की आरी।।
दानवीरों ने दानवता की, हद जब पार ही कर दी।
एक मुठ्ठी चावल देकर, फोटू वायरल कर दी।।
नंगे पांवों के छालो ने, आंखें नीर से भर दी।
पर कुछ सच्चे इंसानों ने, टूटी हिम्मत भर दी।।
सरकारी खज़ाने ऐसे में, हुए कभी ना खाली ।
मानवता फिर जाग उठी, बाहर आ गये कुछ माली।।
कवियों ने जिंदा रहने को, अपना दिमाग चलाया।
ओनलाइन कवि सम्मेलन कर, मन की बात सुनाया।।
लिफाफे वाले कवि तरस गये, श्रोता बीच आने को।
जगहा ढूंढने कहा जाते, अब कविता गाने को।।
हां पर्यावरण तो यारों ,जी भर साफ हुआ था।
गंगा -जमुना का भी पानी, फिर से शुद्ध हुआ था।।
जंगल में हरियाली छाई, और जानवर नाचें।
मोर भी जी भर- भर नाचे, बंदर ने मारे कुलांचे।।
सड़क और घरों में लोग, बहुत ही टूटे ।
नज़र जिधर भी जाती, मिलते टूटे फ़ूटे।।
बेगारी और बीमारी का, तांडव रहा था भारी।
अस्पताल जाने से डरते, कोरोना बीमारी।।
जिनको देखा नहीं किसी ने, उनकी हो गई शादी।
कोई बन गई बुआ- मौसी, कोई बन गई दादी।।
लोकडाउन में लुगाई, आयी बड़ी संख्या में।
पूरे हो गए सपने उनके, जो रहते सदमे में।।
रोजगार सब ठप्प हो गये, खाने के पड़ गए लाले।
शिक्षा के मंदिरों में लग गये, कोरोना के ताले।।
रेल- बस सब बंद हो गई, कैद हुई जिंदगानी।
कैसे बताऊं कितनी भयानक, बन गई ये कहानी।।
कभी N.R.C के झटके, कितने फंदे पर थे लटके।
जब शोक चढ़ा हेरोइन का,तब बंद हुए लटके- झटके।।
जब किसान सड़क पर आ बैठा,समझो भारत ही आ बैठा।
कितने शहीद हुए भारी,पर राजा चुप घर में बैठा।।
लव जिहाद बड़ा मुद्दा निकला,वो मुंह में आग लेकर निकला।।
बेटीयों की लाज लूटती ही रही,वो जातिवाद का घर निकला।।
खाकी से अरदासी डरता,खादी से भारत मां डरती।
कई दिनों से भूखे थे बच्चे, मां ज़हर ना देती क्या करती।।
संतों ने धर्म को नष्ट किया,कितनी अबलाओं को कष्ट दिया।
शिक्षक भी चला इनकी नीति, शिष्या की लाज को तार किया।।
कितनी अनहोनी -होनी में, तब्दील होती देखीं है।
मैंने इंसा के हाथों से,मानव की बोटी देखीं है।।
जातिवाद की जंग बढ़ी,मानवता रोती देखीं है।
मैंने अपने महापुरुषों पर, यहां खुली बगावत देखीं है।।
कसमें- वादे साथ मरन के, सारे हो गये झूठें।
ऐसे दौर में बिन आवाज के, कितने रिश्ते टूटे।।
मंदिर- मस्जिद- चर्च, और गुरूद्वारे सारे हारे।
कोरोना ने सबकी शक्ति, करदी खूब किनारे।।
दवा नहीं पर इलाज को, महंगा खूब चलाया।
अंग निकाल बेचके सारे, खाली खोल जलवाया।।
जी भर सबको 20- 20, साल ने खेल खिलाया।
इतने कभी तो रोये नहीं थे, जितना इसने रूलाया।।
याद नहीं करेंगे तुझको, जालिम हम भूले से।
तुने ऐसा गिराया सबको, खुशीयों के झूले से।।
बड़ी गुजारिश प्रभु तुमसे, अच्छे दिन दे देना।
अबकी साल तो खुशीयां सबकी, झोली में भर देना।।
बेरोजगारी रही चरम पर, उंचे हुए अडानी।
देश की जनता भूख से बिलखी, हंसे खूब अंबानी।।
रामदेव ने भी ना जनता का, साथ दिया ना।
मन की बात कही राजा ने, जनता की बात सुनी ना।।
महंगाई डायन डस गई, गरीब का सारा योवन।
भरी दुपहरी भूखी प्यासी, जिंदगी बन गई जोगन।।
रिश्तो में चुंबक यूं तो, पहले से ही कम थी।
कोरोना का मिला बहाना, सूखी आंखें नम थी।।
भूल गए सब बाल गोपाला, खेलों के भी नाम।
घर के अंदर ही कटती थी, अब तो सुबह- शाम।।
पर सीमा पर खूनी खेल का, बंद नहीं मंजर था।
कपटी देश की बात- बात में, जहरीला खंजर था।।
ऐसे में टी.वी.- अखबार, हो गए सब सरकारी।
जनता के दुःख दर्दो कि, ना दी सही जानकारी।।
अधिकारों को बाहर निकले, तो कहते कोरोना।
राजनीतिक जलसे होते, कहते ये तो होना।।
कोरोना की आड़ में जानें, क्या-क्या काम किए हैं।
जिसने भी सच बोला तो बस, वो बदनाम किए हैं।।
अपने हक अधिकारों को, तुम भी बाहर आ जाओ।
कोरोना से डरो नहीं तुम, कोरोना खा जाओ।।
नहीं चाहिए साल ऐसी, जैसी साल ये पाई।
जिधर भी देखो खुदी हुई थी, गमों की लंबी खाई।।
कुछ भी अच्छा नहीं हुआ जो, इसको याद करें हम।
आओ नई साल का, स्वागत गुनगान करें हम।।
सागर बड़ी आरजू लेकर, खुशीयां मांग रहा है।
हैं प्रकृति तेरे प्यार की, छायां मांग रहा है।।
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मूल गीतकार/ बेखौफ शायर
डॉ.नरेश कुमार “सागर”
हापुड़, उत्तर प्रदेश
9897907490
28/12/2020
रात्रि 11बजे