दर्द की अनुभूति
हर बार ..बारम्बार …… आज का दिन फिर वही दर्द की अनुभूति…..कहते हैं वक्त अपनी ही गति चलता रहता है ..पर जब ..जब ये तारीख आती है .खुद को वापस वहीं खड़ा पाती हूँ जहाँ सब कुछ मेरे सामने था और हम सब असहाय से थे…………… वो बेबसी ..वो लाचारी .. उस दिन के जख्म को और कुरेद जाती है….किसी के जाने से दुनिया नहीं रुकती पर कुछ मन के अंदर थम सा जरूर जाता है। तारीखें बदलती जाती हैं…दीवारों पर नये कलेंडर सुशोभित हो जाते हैं। साल के आखिरी दिनों से लेकर नये साल के हफ्ते दो हफ्ते एक हर्सोल्लास का शोर और इनके बीच एक सहमा सा…मौन..निशब्द रहता है आज भी हमारे मन का आँगन…..कहीं कथा सुनी थी…जब कृष्णजी को छोड़कर बाबा वसुदेव वापस जाने लगे तो कृष्णजी बिलख उठे । उनका दूर जाना उन्हें विचलित कर गया और आँखों से अविरल गंगा बह चली थी। कथा में कितनी सत्यता है नहीं पता …पर इतना तो ज्ञात हुआ कि ईश्वर जो सर्वज्ञाता है ..वो भी मानव रूप में अवतरित होने पर अपनी ही रची मायावी लीला में अपना अस्तित्व भूल मन के अधीन हो गया। इन दिनों हर सुबह दिन की शुरूवात में आँखों में छिपी वो नमी सी रह्ते हैं आप….. तो हर रात पलकों से उतर मन को भीगो जाने का अह्सास …
…….फिर एक नया साल शुरू हो गया आप बिन…….
आज ही वो दिन था जब आखिरी बार दस मिनट नहीं.. नहीं दस सेकेंड शायद वो भी नहीं ….आँखों ने एक पल भी न निहारा आपको …….आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण करती है.. इसलिये शोक न करो…. क्या सहज स्वीकार्य होती हैं ये बातें ? नही समझ आती मुझे गीता की आत्मज्ञान की बातें…. क्योंकि ईश्वर सा महान नहीं है अब भी मन मेरा.. वो आज भी उस बच्चे सा है जो अपने मिट्टी के खिलौने को टूटा देख रोने लगता पर जो नए खिलौने लाकर चेहरे पर मुस्कान ला जा जाता था ..वो आज नहीं है पास मेरे..शायद इसीलिए ये आँखें अब तक नम हैं..अब तक नम हैं……. जगजीत सिंह की वो आवाज़ बस कानों में गूँज़ उठती है…….
ना दर्द ठहरता है…ना आंसू रुकते हैं….चिट्ठी ना कोई सन्देश…जाने वो कौन सा देश …इस दिल पे लगा के ठेस…..जहाँ तुम चले गए |
…..अमृता मिश्रा