दया के सागरः लोककवि रामचरन गुप्त +रमेशराज
लोककवि रामचरन गुप्त का मन कविता के स्तर पर ही संवेदनशील नहीं रहा, बल्कि जिन स्त्रोतों से वे कविता के लिये संवेदना ग्रहण करते थे, उन सामाजिक स्त्रोतों की अस“यता, क्रन्दन, करुणा, दया, दुखःदर्द और शोषण के प्रति ‘कुछ कर गुजरने’ की ललक उनमें आजीवन रही। गरीबों, असहायों, पीडि़तों के प्रति सेवा-भाव में रचा-बसा उनका मन हर तरह अत्याचारों का विरोधी रहा। चाहे अलीगढ़ के दंगे हों या भोपाल गैस त्रासदी या कोई बलात्कार या दहेजहत्या से लेकर चोरी-डकैती-कांड, उनका मन ऐसी घृणित घटनाओं पर क्षोभ, आक्रोश और उत्तेजना से भर उठता।
लोककवि रामचरन गुप्त आर्थिक रूप से भारत को गुलाम बनाने वाली अमेरिकी नीतियों के प्रति जनता के बीच चाहे जब अपने विरोध को मुखर कर बैठते। ऐसे संवेदनशील मन के धनी श्री रामचरन गुप्त अपनी जन्मस्थली गांव एसी जिला-अलीगढ़ में रहते थे तो ग्रामवासियों की सेवा में अपना तन-मन लगाकर कई बार उन्होंने दिन-रात एक किये। एसी गांव के निवासी डोरी शर्मा के पैरों में फोड़े हुए और फोड़ों में कीड़े रेंगने लगे। श्री रामचरन से डोरी शर्मा की असह्य वेदना और दुर्दशा नहीं देखी गयी। वे उसे लेकर सरकारी अस्पताल पहुंचे और भर्ती कराकर उसका इलाज करवाया। ठीक इसी तरह की सहायता उन्होंने राजवीर पुत्र मोहन लाल की भी की।
श्री गुप्त के साथी लोकगायक डोरीलाल शर्मा के भाई महेन्द्र शर्मा उपर्फ नरहला की ट्यूबैल की कंुडी में गिरने से जीभ कट गयी, वह उसे लेकर भूखे-प्यासे रात में ही भाग छूटे और नगर के सरकारी अस्पताल में उसका इलाज कराया। श्री गुप्त के मित्रा ठा. चन्द्रपाल सिंह के पिता आंखों के रोग से ग्रस्त थे, उन्हें लेकर वे गांधी आई हॉस्पिटल आये और वहां अपना काम छोड़कर कई दिन उसके साथ रहे।
श्री रामचरन गुप्त का यह काल घोर गरीबी और दुर्दिनों का काल था। एक दिन मजदूरी न करने का मतलब था-घर में एक दिन फाका। लेकिन श्री गुप्त ने अपनी या अपने परिवार की चिन्ता न करते हुए गांव के ऐसे अनेक लोगों की हर संभव सहायता या सेवा की, जिन्हें वक्त पर अगर सहायता न दी जाती तो परिणाम अनिष्टकारी, दुःखद और त्रासद हो सकते थे। यही नहीं वे बिच्छू, ततैया आदि के काटने पर चीखते-चिल्लाते लोगों का मंत्रों आदि के द्वारा उपचार करते थे।
श्री रामचरन गुप्त अपना गांव एसी छोड़कर जब अलीगढ़ नगर में आ बसे, उस वक्त उन पर लक्ष्मी की विशेष कृपा हो गई तो उन्होंने धन से असहाय, गरीबों, रिश्तेदरों की यथासम्भव सहायता की। गांव एसी में अपनी जमीन पर मंदिर-निर्माण करवाया। साध्ुओं, संतों, फकीरों का स्वागत किया। सच तो यह है कि उनके सामने याचक बनकर जो भी आया, वह निराश नहीं लौटा। एक बार उनके पड़ोस में एक जाटव का लड़का अग्नि की चपेट में आ गया। श्री गुप्त उसे देखने तुरंत घटनास्थल पर पहुंचे और बिना सोचे अपनी जेब में से इलाज को रुपये दिये और उसके परिवार वालों से कहा-‘इस बच्चे का तुरंत भर्ती कराकर अस्पताल में इलाज करवाओ। लोककवि रामचरन गुप्त सचमुच दया के सागर थे।