दबी दबी आहें
दबी दबी आहें
आज करिश्मा का तलाक़ हो गया था, दुबई में आयल कंपनी में उसकी अच्छी नौकरी थी , माँ ने उसे इस क़ाबिल बनाने में अपनी जान लगा दी थी । ज़िंदगी भर माँ यही कहती रही थी खुद के पैरों पर खड़ी नहीं होगी तो देख मेरे जैसी हालत हो जायेगी । संयुक्त परिवार में एक नौकरानी बन कर रह जायेगी । करिंश्मा भी रोज़ देखती थी कि उसके पिता सोफ़े पर बैठे बैठे सिर्फ़ माँ को आदेश देते रहते थे। खाना बनाने से पहले रोज़ माँ दादी से पूछती थी कि वह खाना क्या बनायें , दादी कहीं भी खड़ी खड़ी , किसी के भी सामने मां को डाट देती थी । दादा जी माँ से कभी बात भी नहीं करते थे , फिर भी माँ कब कहाँ जायेगी , इसका निर्णय वह दादी द्वारा माँ को पहुँचा दिया करते थे ।
दादा जी का अपना ट्रांसपोर्ट बिज़नेस था , शहर में उनका बहुत रुतबा था , उन्होंने माँ को किसी की शादी में नाचते देख लिया था और अपने बेटे के लिए पसंद कर लिया था । माँ बीस साल की थी और पापा बाईस साल के । रिश्ता पक्का होने पर वह बहुत रोई थी, दो दिन खाना नहीं खाया था, सिर्फ़ इतना चाहा था कि एम ए नहीं तो उन्हें बी ए ड कर लेने दे। वह पढ़ाना चाहती थी , परन्तु नाना जी ने एक न सुनी, आनन फ़ानन में शादी कर दी और यह भी कह दिया, ‘ अब यहाँ जब आए मेहमान की तरह आए ।’ माँ का वह घाव इतना गहरा था कि कभी भरा ही नहीं । उनका नाचना गाना तो दूर , तेज चलना तक रूक गया था। जब भी नानाजी आते ढेरों सामान लाते और दादाजी के सामने बार बार हाथ जोड़ते, माँ को लगता , जैसे बेटी होने पर शर्मिंदा हों ।
जिस साल करिश्मा का जन्म हुआ , उसके कुछ ही महीने बाद चाची ने बेटे को जन्म दिया , ससुराल में यकायक चाची का कद ऊँचा हो गया । और तब से माँ ने ठान लिया कि वह करिश्मा को वह बनायेगी , जो उस घर का कोई भी मर्द नहीं बन पाया था । वह रात रात भर करिश्मा को पढ़ाती , पुस्तकालय की सारी पुस्तकें माँ बेटी मिल कर चट करने लगी । करिश्मा का आत्मविश्वास बढ़ ही रहा था, साथ में माँ भी अपने लिए नए रास्ते ढूँढने लगी । करिश्मा की सहायता से उन्होंने कांटेंट राइटिंग शुरू की, चुपचाप एक बैंक अकाउंट खोल लिया, रात को बैठकर लिखती और सुबह पैसे उनके अकाउंट में आ जाते, माँ बेटी का जीवन दिन में कुछ और , और रात को कुछ और होने लगा । फिर एक दिन वह आया जब करिश्मा ने बी एस सी गोल्ड मैडल के साथ पास कर लिया, और उसने घोषणा कर दी , वह ससुराल नहीं बल्कि अहमदाबाद जायेगी , ताकि एम बी ए कर सके । घर में सब सकते में थे , यह सब कब हुआ , करिश्मा ने इतनी शक्ति, इतना बल कब अर्जित किया !
करिश्मा चली गई तो माँ बहुत अकेली पड़ गई, वह यही सोचती रही कि एक दिन करिश्मा आकर उसे ले जायेगी , और वह खुलकर जी पायेगी ।
दो साल बाद करिश्मा की दुबई में एक आयल कंपनी में नौकरी लग गई , परन्तु माँ को साथ ले जाने की बजाय, उसने दादा जी को बताया कि वह शादी कर रही है , अपनी पसंद के लड़के के साथ । माँ ने सुना तो एक गहरी उदासी उन पर छा गई, उन्होंने दबी ज़बान से कहा ,
“ जब इतना अच्छा कैरियर है तो शादी की क्या ज़रूरत है ?”
“ कैरियर का मतलब यह थोड़ी है कि मुझे घर नहीं चाहिए, बच्चे नहीं चाहिए । “
करिश्मा देख रही थी कि माँ वह सब कर रही थी जो उन्हें करना चाहिए, परन्तु किसी भी काम में उन्हें रति भर भी उत्साह नहीं था , यहाँ तक कि आदित्य से भी वह ऐसे मिलीं जैसे कर्तव्य निभा रही हों ।
करिश्मा अपराध बोध से भरने लगी । शादी के बाद वह जब भी आदित्य के साथ होती, उसे माँ का उदास चेहरा नज़र आने लगता । आदित्य उसकी यह हालत समझ रहा था , और वह उसे मनोवैज्ञानिक से मिलने की बार बार राय देने लगा । एक दिन करिश्मा इसे और नहीं झेल पाई, और उसने आदित्य को चाकू दिखाते हुए कहा ,
“ तुम क्या मुझे पागल समझते हो ? टापर रही हूँ मैं , स्पोर्ट्स में , डिबेटस में , हर क्षेत्र में तुमसे आगे रही हूँ , और तुम मुझे अपनी दासी बनाना चाहते हो ?”
आदित्य उस दिन घबरा गया , और रात वो अलग कमरे में सोया ।
अगले दिन उसने मनोवैज्ञानिक से समय लिया, और जाकर अपनी स्थिति का वर्णन किया ।
मनोवैज्ञानिक ने कहा कि करिश्मा का इलाज हो सकता है , परन्तु इसके लिए उसका स्वयं आना आवश्यक है ।
करिश्मा आफ़िस का काम अच्छे से कर लेती , परन्तु घर का उससे कोई काम नहीं होता, छुट्टी के दिन वह इतनी उदास होती कि सारा सारा दिन उठ नहीं पाती । अब उसका जीवन फिर दो हिस्सों में बंटने लगा, धर में कुछ और, और आफ़िस में कुछ और !
आदित्य ने इस विषय में अपने माता-पिता से बात की , माँ ने कहा , “ तलाक़ दे दो ।”
पिता ने कहा , “ अब वह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, तुम उसकी माँ को अपने पास बुला लो , शायद हालात संभलने लगें । “
माँ आई तो करिश्मा की ख़ुशी का ठिकाना न रहा , वह उसे जीवन में वह सब देना चाहती थी , जो उससे बरसों पहले छूट गया था । माँ जब आई तो आरम्भ में दबी दबी सी थी , धीरे धीरे खिलने लगी , यह नया अधिकार पा , वह वाचाल हो उठी , हर जगह उनकी टोका टोकी, हर जगह उनका उपस्थित होना , घर की हवाओं को घोंटने लगा ।
एक दिन आदित्य ने कहा, “ माँ आप कांटेंट राइटिंग फिर से क्यों नहीं शुरू कर देती ?”
माँ को यह बात अच्छी नहीं लगी , उन्हें लगा मैं इस पर बोझ हो रही हूँ ,अब आदित्य की हर बात में दोहरे अर्थ निकालने की उनकी एक आदत सी हो गई । आदित्य चुप रहने लगा , घर उसे बंद कोठरी सा लगने लगा , वह किसी से खुलकर सामान्य बातचीत करने के लिए तरसने लगा ।
धीरे धीरे उसकी दोस्ती करिश्मा की ही दोस्त रिमझिम से बढ़ने लगी । रिमझिम का तलाक़ हो चुका था , और शादी में हो रही इन मुश्किलों को समझने की उसमें एक अलग से ताक़त आ चुकी थी , आदित्य क्या अनुभव कर रहा है, वह समझ रही थी , आरम्भ में उसे सँभालना रिमझिम को एक दोस्त का कर्तव्य लगा , परन्तु वह खुद कब उसकी ज़रूरत बनता चला गया उसे पता भी नहीं चला ।
करिश्मा को जब यह बात रिमझिम ने बताई तो वह सकते में आ गई । वह किसको क्या कहे , रिमझिम, आदित्य, माँ , वह तीनों से प्यार करती थी , और आदित्य ने उसे धोखा दिया है, वह यह भी तो नहीं कह सकती , उसने तो बस एक दोस्त से सहायता माँगी थी , जब उसकी पत्नी इतनी उलझ गई हो तो वह क्या करता !
उस पूरी रात वह अपनी उदासी के गहरे धरातल में अकेली रेंगती रही ।
सुबह आफिस जाने से पहले उसने माँ से कहा, “ मैं आदित्य को तलाक़ दे रही हूँ ।”
माँ के चेहरे पर एक हल्की सी अनचाही मुस्कराहट आ गई ।
“ यही चाहती थी न तुम ? “ करिश्मा ने माँ को पैनी नज़र से देखते हुए कहा ।
“ मैं ऐसा क्यों चाहूँगी !! “ माँ ने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा ।
करिश्मा ने अपने चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान आ जाने दी , इतनी चोट तो माँ को भी पहुँचनी चाहिए, उसने मन में सोचा , फिर अपना बैग उठाया और एक झटके से बिना मुडे बाहर चली गई ।
माँ सोच रही थी मैंने ग़लत क्या किया , माना मेरी बेटी का वैवाहिक जीवन मुझसे बेहतर है, परन्तु इसकी ज़रूरत क्या है, जब जीवन स्वतंत्र हो सकता है तो उसे शादी के बंधन में बांधने की ज़रूरत ही क्या है !!!!।
पर माँ के आंसू थे कि रूक ही नहीं रहे थे , वह सोच रही थी कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वह भी अपनी बेटी के साथ वह कर रही हैं जो उनके पिता ने किया, क्या वह भी जाने अन्जाने करिश्मा पर अपने अनुभवों का बोझ लाद रही है ?
शशि महाजन- लेखिका
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