दधीचि की हड्डियां
कृषि और पशुधन के कारण गांव हमेशा से ही समृद्धि का प्रतीक रहे हैं। विकसित और आधुनिक कहे जाने वाले शहरों का भरण पोषण भी गांव पर ही निर्भर है। इसी कारण अन्न देने वाली वसुधा को ”माता”और किसान को “अन्नदाता” की संज्ञा दी जाती है। इस बात से तो किसी को भी संदेह नहीं होना चाहिए।
लेकिन आज मैं जिस गांव की बात करने जा रहा हूं उसे आसपास के लोग निर्धनों का गांव भी कहते हैं। यूं समझिए कि जो कुछ भी ज्यादातर गांव वाले उगा पाते हैं बस उनके ही जीवित रहने के लिए पर्याप्त है। उनमें से भी ज्यादातर गांव वालों के पास अब उनकी ही जमीनों का अधिकार नहीं रहा। उत्तरजीविता के कारण कई गांव वाले पलायन कर गए और बचे खुचे किसी तरह जीवन यापन कर रहे हैं। उन्हीं लोगों में से दुधवा की स्थिति सबसे बेहतर है। लोग उसे दुधवा जमींदार कहकर भी पुकारते हैं। एक वही है जिसके पास अपनी जमीन के एक टुकड़े का मालिकाना हक है। इसी वजह से दुधवा को न सिर्फ अपने गांव में अपितु आसपास के गांव में भी लोग जानते हैं।
भले ही ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर उसकी गुजर बसर थी किंतु उसके परिश्रम का लोहा सभी मानते थे। कुछ और व्यवसाय तो था नहीं। अपनी ज़मीन के लिए उत्तराधिकारी भी चाहिए था उसे। जो भविष्य में परिवार की जिम्मेदारियों के बोझ को बांट सके। पुत्र प्राप्ति की चाह ने उसे सात बच्चों के बोझ तले ला दिया। छह लड़कियां और एक लड़का। नौ लोगों के परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ पड़ी।
उसकी माली हालत दिन ब दिन ख़राब होती चली गई और इसका असर उसके शरीर पर भी पड़ने लगा। परिवार की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी उसका सामर्थ्य अब जवाब देने लगा था। इसी पशोपेश में उसने अपनी सभी लड़कियों के विवाह बाल्यावस्था में ही कर डाले। दुधवा अब यह सोचकर थोड़ा निश्चिंत रहने लगा कि उसका पुत्र जल्दी ही परिवार की जिम्मेदारियां अपने कंधों पर ले लेगा। सबसे छोटा होने के कारण वो भी अभी नासमझ ही था या यूं कहें कि अपने बचपन में ही था। अब समय से पहले तो वयस्क हो नहीं सकता था। इसलिए दुधवा के पास इंतजार के सिवा और कोई चारा नहीं था। वो अच्छे दिनों की आस में और अधिक परिश्रम करने लगा। लेकिन आभाव दुधवा को कमज़ोर बनाता जा रहा था। उसके शरीर पर मानो मांस बचा ही न हो। हड्डियों का चलता फिरता ढांचा दिखने लगा था दुधवा। जो गांव वाले उसे किसी जमाने में जमींदार कहकर पुकारते थे वही लोग उसे अब दधीचि कहकर संबोधित करने लगे। उसके शरीर से भी मांस ऐसे गायब होता जा रहा था जैसे किसी ने उससे उसकी हड्डियां दान मांग ली हों। कुछ और दिन कटे और फिर आखिरकार दुधवा इस संसार से विदा हो गया। ये तो मात्र एक दुधवा की कहानी है। याद रहे!! हम जिस अन्न को रोज ग्रहण करते हैं उसे हम तक पहुंचाने में जाने कितने दधीचि अपनी हड्डियां कुर्बान कर देते हैं।
– विवेक जोशी ”जोश”