थोड़ा सहज सोंचे !जरा हटकर !
सबकुछ इतना फास्ट हो चुका है,
डॉ महेन्द्र पसंद है,
उसकि रचनाएं पसंद है,
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शीर्षक क्या है?
उस रचना में विषय कैसा है,
उससे कोई मतलब नहीं है,
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ये कौन विषय है,
मालूम नहीं,
पर बहुत बड़ी चूक वा निष्क्रियता जरूर है,
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हमारे विचार स्वतंत्र क्यों नहीं ?
हमारा आधार निजता क्यों नहीं है ?
हम सम्मोहन क्यों नहीं तोड़ पा रहे ?
हमारी जरूरतें एक जैसी क्यों है ?
हम कुछ अलग क्यों नहीं सोच पाते ?
हम उद्देश्य से क्यों भटक जाते है?
हमारे दृष्टिकोण भिन्न क्यों नहीं है ?
हमें कौन-सी चीजें पीछे धकेल रही है,
हम अबतक विकसित क्यों नहीं हो पाए ?
हम अपने पुराने ढ़ाँचे को क्यों नहीं बदलना चाहते ?
शायद हमें कोई गलत चीज़ सुख देती है
और वर्षों से सुलाये है !
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मेरे जहन्नम में हजारों सवाल उठ खड़े होते है ? जवाब नहीं खोज पाता !